हम जैसे हैं वैसे क्यों हैं ?


’’तुम जानते हो आदमी के पेट में भी एक छोटा दिमाग होता है और वह अपने फैसले स्वयं कर लिया करता है, केवल अपने फैसले नहीं करता, बड़े दिमाग को नियन्त्रित और निर्देशित भी करता है?‘’
‘’यह खयाल कैसे सूझ गया तुमको ?’’
’’इसलिए कि हममें से अधिकांश लोग पेट वाले दिमाग से सोचते हैं, बहुत कम लोग हैं बड़े दिमाग से सोचते हैं। सत्ता हस्तांतरण के बाद हमारे समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती चली गई । यदि ऐसा न होता तो हमने सत्ता पाने के बाद उदरंभर बनने की जगह स्वतंत्र बनने की कोशिश ज़रूर की होती। सत्ता- हस्ता‍न्तरण को ही स्वाधीनता मान कर रास-रंग में व्यस्त न हो गए होते। स्वतन्त्र कहे जाने वाले भारत में उदरंभरता का विस्तार न हुआ होता, हमारी जबान लम्बी और रीढ़ कमजोर न होती गई होती। 
'जानते हो उदर वाले दिमाग से सोचने वाले पेट के बल रेंगते हैं, तनकर खड़े नहीं होते इसलिए वे चलते नहीं हैं किसी के पाँव पकड़ कर घिसटते हैं और हम पश्चिम के पाँव पकड़ कर घिसटते हुए आगे बढ़ रहे हैं और प्रसन्न हैं कि जहॉं थे वहाँ से इतना आगे बढ़ चुके हैं, यह नहीं समझ पाते कि जिस सतह पर थे उससे कितने गिर चुके हैं।‘’ 
’’तुम यह मानोगे कि तुम ऐसी बातें लोगों को चौंकाने के लिए करते हो?’’
‘’ तुम मेरे साथ दोस्ती के कारण कुछ रियायत कर रहे हो। मैं चौकाने के लिए कुछ नहीं करता। अपने भरसक थप्पड़ लगाता हूं और उस चुल्लू भर पानी की तलाश करता हूँ जिसमें कभी लोग डूब मरा करते थे। क्योंकि थप्पड़ खा कर भी तुम कहते हो मजा आ गया, कितनी चमत्कारी बात कही है और तान कर सो जाते हो अगले थप्पड़ के इन्तजार में जब फिर मजा आएगा।
'' आश्चर्य होता है कितना श्रम उन्होंने हमें अपना बौद्धिक गुलाम या अपना परजीवी बनाने के लिए किया। उसकी शतांश कोशिश भी हमने अपनी मानसिक स्वाधीनता के लिए की होती, उनकी दबोच से बाहर निकलने के लिए की होती तो ...’’
''तुम हवा में बातें कर रहे हो। पता नहीं चलता तुम किसके किस गुण या दोष की ओर इशारा कर रहे हो।''
‘’मैं बात तो कर ही नहीं रहा था यार। मैं तो रो रहा था। रोने के कई रूप हैं, कई बार आदमी हँसते हुए भी रोता है और बोलते हुए भी रोता है, और कई बार चीत्का‍र करते हुए भी अट्टहास करता है। तुमने देखा दलि‍त चीत्कार के रूप में प्रकट होता दलित अट्टहास।''
''आ गए न सामयिक राजनीति पर।''
'' मौसम की मार से कोई बचा है। पर मौसम की मार खाने वाले भी लगातार मौसम पर बात नहीं करते। मैं रो भी रहा था और उन महान सांस्क़ृतिक आक्रमणकारियों की राष्ट्रनिष्ठा को अश्रुजल से तृप्तं भी कर रहा था। मेरे मन में उनके प्रति उससे गहरा सम्मान है जो तुम्हारे मन में होगा जो उपनिवेशवादी मूल्यों से क्रान्ति का सपना देखते देखते उूब गए तो सोचा धर्मक्षेत्र में ही क्रान्ति कर ली जाए और इन धर्मों के बुनियादी तत्वों तक को नहीं समझा। जो हो रहा है अच्छा ही होगा, समय आगे बढ़ता है तो समाज भी आगे बढ़ता है के इकहरेपन के कारण न अपने समय को समझ पाए न समाज को न अपने कार्यभार को ... ''
’’तुम तैश में आ गए हो।‘’
’’जानता हूँ इसलिए यह भी नहीं समझा पाऊँगा कि तैश में आया क्यों हूँ। बात कल करेंगे।''


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