गांधीनामा

तुम्हारी कुछ बातें मुझे भी सही लगती हैं।
सही गलत के चक्कर में मत पड़ा करो, जो सही है वह भी गलत हो सकता है, और जो गलत है वह कुछ लोगों केा गलत लग सकता है, दूसरों को सही क्योंकि उसी से कुछ लोगों को नुकसान हो सकता है और दूसरों का फायदा।
वह हँसने लगा। कुछ बोला नहीं।
’’देखो अभी कल एक सज्जन कह रहे थे, गांधी जन-आन्दोलन खड़ा करने के लिए खिलाफत का भी समर्थन कर सकते थे। मैंने कहा, नहीं, यह तथ्य तो है, पर सच नहीं है। गांधी से पहले मुसलिम चेतना पर सैयद अहमद का प्रभाव था जो मुसलमानों को कांग्रेस से अलग रहने और अंग्रेजी सरकार का विश्वासपात्र बने रहने की नसीहत देते थे, क्योंकि यह उनके लिए फायदेमन्द था और इसलिए सही था। पर गलत इसलिए था कि मुस्लिम हित को सर्वोपरि मानने के कारण वह बौद्धिक रूप में अंग्रेजी कूटनीति के सम्मु‍ख आत्मसमर्पण कर चुके थे, एक असाधारण प्रतिभा, अपनी संकीर्ण सोच के कारण मुहरा बन कर रह गई थी और इससे मुस्लिम समुदाय मुख्य धारा से कट कर दरबाबन्द चेतना का शिकार हो गया था। गांधी की सोच यह थी कि यदि हमें भारतीय समाज को एकजुट करना है तो हमें उसके किसी हिस्से‍ के ऐसे सरोकार का जो अंग्रेजी सत्ता के लिए असुविधाजनक है, समर्थन करना चाहिए। भीड़ जुटाने का वहाँ प्रश्न नहीं था। परन्तु जल्‍द ही इसके नतीजों ने ही समझा दिया कि यह बहुत बड़ी भूल हो गई और उन्हों ने पूरी कांग्रेस पार्टी को हैरानी में डालते हुए अपना आन्दोलन ही स्थगित कर दिया और एक लंबे विराम में बाद उसे नये सिरे से खड़ा किया।
'' गाँधी भारतीय राजनीति में प्रवेश करने से पहले ही एक चमत्कारी पुरुष के रूप में विख्यात हो चुके थे और एक साल के भारत दर्शन के बाद तो वह घूरे पर भी खड़े हो जाएं तो वह तन कर एक टीला बन जाता था और भीड़ स्वत: उनके चुबकीय व्यक्तित्व के कारण एकत्र हो जाती थी और जिधर मुड़ते हवा तक अपना रुख बदल लेती।
आइंस्टाइन और गांधी बीसवीं शताब्दी की दो आश्चर्यजनक विभूतियां हैं, परंतु एक का सरोकार भूत-जगत से था तो दूसरे का प्राणि-जगत से । भूत जगत में हम इच्छानुसार विच्छेेदन, विलगाव, नियन्त्रण कर सकते हैं प्रकृति के रहस्यों को समझ सकते हैं, एक बार विफल होने पर दोबारा अपनी चूक से बच और भूल को सुधार सकते है और इससे श्रम और धन की मामूली सी क्षति को छोड़ कर दूसरी कोई क्षति नहीं होती, परंतु प्राणि-जगत में और खास तौर से मानव जगत में इनमें से कोई सुविधा नहीं होती इसलिए उसमें अपना विवेक और अन्त:प्रज्ञा को छोड़ किसी चीज का सहारा नहीं होता। जाहिर है, उसमें यदि कोई बड़ा प्रयोग किया गया तो उसके परिणाम भयानक हो सकते हैं और इसके अपवाद तो आइंस्टा़इन भी नहीं जिन्होंने यह जान कर कि जर्मनों ने परमाणु बम तैयार कर लिया है, रूजवेल्ट को बम बनाने की सलाह दी थी और उसके सूत्र भी सुझाए थे। रूजवेल्ट बड़े नेता थे, गहन मानवीय संवेदना से युक्त। उनका पोलियो भी उनकी इस संवेदना का ही पुरस्कार था। आइंस्टाइन को क्‍या पता था कि उन्हें नाम से सच्चा मनुष्य या कहो मानववादी पर मिजाज से जल्लाद उत्तराधिकारी मिलेगा जो स्वयं उस भयानक त्रासदी का सूत्रपात करेगा जिसे टालने के लिए उन्होंने यह सुझाव रखा था। उन्होंने प्रतिरक्षा की चिन्ता से कातर हो कर इसमें योगदान दिया था, आक्रामक आयुध के रूप में नहीं।
'छोटे लोग छोटी गलतियाँ करते हैं जिससे सिर्फ उनका नुकसान होता है, पर महान लोग इतनी महान भूलें करते हैं जिनके लिए गाँधी ने हिमालयी भूल या हिमालयन ब्लंडर का पद गढ़ा था। यदि ब्लंडर के आकार को मानदंड बनाया जाय तो आइंस्टाइन मानव इतिहास के सबसे बड़े आश्चर्य हैं, जो उनके चकित करने वाले कामों से भी सिद्ध हो सकता है। परन्तु आइंस्टाइन ही ऐसी प्रतिभा थे जो समझते थे कि भौतिकी के क्षेत्र में काम करने से अधिक महत्वपूर्ण है मानविकी के क्षेत्र में काम करना है, क्योंकि सभी मानव प्रयास मानव जीवन को उन्नत बनाने के लिए ही तो, इसलिए अन्तिम दिनों में वह इस ओर भी मुड़े थे। वही कह सकते थे कि आने वाले समयों में किसी को यह विश्वास न होगा कि गांधी जैसा कोई व्यक्ति इस धरती पर पैदा हुआ था।
यह विचित्र है कि खिलाफत आंदोलन के परिणाम स्वरुप जो बोरा विद्रोह अंग्रेजों के विरुद्ध आरंभ हुआ था उसे ब्रितानी खुफिया तन्त्र ने यह प्रचारित करके कि अब ब्रिटिश राज खत्म हो चुका है, खलीफा का राज्य स्थापित हो चुका है, सच्चे इस्लामी राज्य में मुसलमानों से अलग किसी को जिंदा रहने का अधिकार नहीं है उसकी दिशा पलट दी थी और इसके बाद वही आक्रोश जो पहले अंग्रेजों के प्रति था, हिन्दुओं के विरुद्ध हो गया और अंग्रेजी प्रशासन ने इसे फैलते जाने की पूरी छूट दे दी। इस उपद्रव की कहानियॉं इतनी हृदयविदारक थीं कि जब इसकी खबर गांधी को लगी तो उन्होंने कहा था, उन्हें मारना चाहिए था। यह पढ़ कर मैं स्तम्भित रह गया था। गाँधी की अहिंसा क्या राजनीतिक अवसरवाद है।
यह समझने में कई वर्ष लगे थे कि गॉंधी की अहिंसा, बिना परंपरा का गहन अध्ययन किए ही (या कौन जाने गाँधी क्या् क्या पढ़ और जान चुके थे), उस सोच से जुड़ी थी जिसमें हिंसा को अक्षम्य पाप तो कहा गया है, परन्तु यह विधान भी है कि आततायी का वध करने पर कोई पाप नहीं लगता। आज की भाषा में कहें तो यह अपरिहार्य और न्यायोचित है। न आततायि बधे दोषो हन्तुःभवति कश्चन ।
कहते हैं आइंस्टााइन के सापेक्षता सिद्धांत के बारे में एक व्यक्ति ने कहा था दुनिया में इसके तीन जानकार है। जिससे उसने ऐसा कहा था उस वैज्ञानिक ने कहा था दो को तो मैं जानता हूं, एक मैं दूसरे आइंस्टांइन, पर यह तीसरा कौन है?
हो सकता है फिकरा हो, पर कई बार फिकरे भी यथार्थ की उससे अधिक गहरी व्याख्या कर जाते हैं जिससे दार्शनिक करना चाहते हैं और कर नहीं पाते।
''सापेक्षता के सिद्धांत पर बात करोगे जिसे तुम जानते नहीं या उस विषय पर बात करोगे जिस के बारे में जैसी भी सही, कुछ जानकारी रखते हो।''
अरे भाई मैं सापेक्षता के सिद्धांत की बात नहीं कर रहा हूं । मैं तो यह कह रहा हूं कि महान से महान वैज्ञानिक भी उसके कुछ पहलुओं को नहीं समझ पाए थे। उन्हें ज्ञेय मानते थे पर ज्ञात नहीं। वे मानते थे कि सच्चाई तो कहीं है, परन्तु प्रमाणित नहीं हो रही है उनके अपने सिद्धांतों के अनुसार मैं केवल इस मोटी खबर को जानता हूं कि उसका जितना अंश ज्ञात और मान्य हो सका, उसकी ओर आइंस्टाइन का ध्यान नहीं था। वह बहुत कुछ ऐसा जानते थे जिस तक किसी अन्य की पहुँच असंभव थी। उनका उल्लेख इसलिए कर रहा हूं कि यह बता सकूं कि गांधी के अहिंसा सिद्धांत को भी उसी तरह से हमारे समाज में नहीं समझा, जैसे सापेक्षता के विशेष सिद्धान्त को। उसको समझने वाला शायद दुनिया में कोई दूसरा नहीं था । पर जितना समझ में आता था उसी पर लोग उन्हें सिर पर उठाए फिरते थे। ठीक यही हाल गांधी का था।
अरे भाई मैं चाहता था तुम यह बताओ हिन्दी का भविष्य क्या है और तुम गांधीनामा ले कर बैठ गए। 
उस पर कल बात करेंगे।
https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1021362391258500

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