व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे


उसने मिलते ही सवाल दागा, ‘’तुम मानते हो उत्तर और दक्षिण की भाषाओं में कोई अंतर नहीं है?’’

‘’मैं ऐसा कैसे मान सकता हूं? मैं तो यह तक नहीं कह सकता कि मेरे सिर और पाँवों में अंतर नहीं है, जबकि दोनों मेरे ही हैं और इनमें से किसी के न होने या दुर्बल होने पर मैं अपंग हो सकता हूँ। भिन्नता आवयिकता की अनिवार्य अपेक्षा है। सर्वाधिक समर्थ जीव सर्वाधिक भिन्नताओं के संयोजन से पैदा होता है। भिन्नता और अलगाव दोनों अलग चीजें हैं। जड़ पदार्थों में आंतरिक भिन्नता कम होती है और उनको दूसरे पदार्थों से उनके अलगाव से पहचाना जाता है। जैव सत्ताओं में आं‍तरिक भिन्नता बढ़ती जाती है और अपनी पराकाष्ठा पर भिन्नताओं का विकास और लगाव अधिकतम होता है।

''अपनी जरूरत से हमें अधीन करने वालों ने भिन्नताओं को रेखांकित और यदा कदा महिमामंडित भी किया, पर लगाव के सूत्रों को देख और समझ कर भी उनकी उपेक्षा करते रहे। उनके लिए मेरे मन में गहरा सम्माान है। उन्होने हमारे ही हथियार को ले कर हमारे विरुद्ध इतनी चतुराई से प्रयोग किया कि रक्त कम बहा, घाव कैंसर की तरह फैल कर भारतीय समाज को ऐसी रुग्णताओं से भर गया कि मरीज अपने मर्ज को ही अपनी दवा समझने लगे।''

'' मैं जानता था तुम बहाव में आ जाओगे, विषय ही कुछ ऐसा है। मैंने इस विषय में अधिक पढ़ा नहीं है, इसलिए साफ साफ बताओ, तुम कहना क्या चाहते हो।''

''देखो, जैसा कि हमारे पुराणों में कहा गया और बाद की कृतियों में यहाँ वहाँ दुहराया गया है, हम सभी सतयुग की सन्तान हैं। उस अवस्था‍ की जब मनुष्य पूर्णत: प्रकृति पर निर्भर था और वन्य पशुओं जैसा ही जीवन जीता था। उसी से कोई अधिक आगे निकल गया और कोई उसके निकट रह गया और आज भी अपने भिन्न मूल्यों के कारण वहीं बना रहना चाहता है। नृतत्व के इतिहास का नमूना बनने के लिए तो यह ठीक है, परन्तु अपना जीवन जीने के लिए यातना और अपमान को जीवन मानने जैसा ही है।

परन्तु यह विषय भी ऐसा है कि इसकी सुरंग में दाखिल हो गए तो बाहर का रास्ता जाने कब मिले। फिर भी यह समझना जरूरी है कि दक्षिण भारत में खेती का प्रसार बहुत बाद में हुआ । उत्तर भारत और दक्षिण भारत का एक अन्तर तो इस कारण है, दूसरा अन्तर उससे भी पुराना है जिसमें उत्तर और दक्षिण के अटन क्षेत्र अलग थे। यह किताबी ज्ञान के आधार पर कह रहा हूँ कि पुरापाषाण काल में ही उत्तर में सोन कारखाना या पत्थार के औजारों की एक विशेष शैली सोहन या सोन नदी जो उस सोन से अलग है जो शोणभद्र नद कहा जाता है, के क्षेत्र में पाया जाता था और दूसरा जिसे मद्रास इंडस्ट्री कहा जाता है। इन जिसकी कुछ भिन्नताएँ थीं । दोनों के अटनक्षेत्र मध्यप्रदेश में आकर मिलते थे इसलिए दोनों के बीच आदान प्रदान था, दूसरी ओर उत्तरी अटनक्षेत्र का प्रसार भूमध्य सागर तक था और इसलिए कहा जा सकता है कि मध्येशिया और तुर्की तक एक संबंध सूत्र आहार संचय के प्राथमिक चरणों से ही बना हुआ था जिसके कारण अनेक सांस्क़तिक लक्षण बहुत पहले से, भाषा भारती के प्रसार से हजारों साल पहले से बना हुआ था और यही कारण है कि क़ृषि का विकास भारत से ले कर तुर्की तक लगभग समान प्रतीत होने वाले कालखंड में हुआ। भारतीय नवपाषाण कालीन स्थलों का पता बाद में चला इसलिए पहले यह धारणा बन गई थी कि खेती का आविष्कार उर्वर चन्द्र रेखा के क्षेत्र में हुआ, परन्तु भारतीय स्थलों का पता चलने के बाद जैरिज ने यह दावा किया कि किसानी का आरंभ भारत से हुआ, उनके शब्दों में द फर्स्ट फार्मर वाज इंडियन या ऐसा ही कुछ। परन्तु इस बात पर ध्यान दो कि उत्तर भारत के साम्राज्यवादियों – मौर्य और गुप्त राजाओं – के साम्राज्य का विस्तार यदि कन्याकुमारी तक हो सका होता तो जिसे द्रविड़भाषी क्षेत्र माना जाता है वह पूरा आर्यभाषी माना जाता, जैसे हम बंगाल, असम, ओडिशा, महाराष्ट्र आदि में मामले में पाते हैं।

इसलिए अब अन्तर द्विस्तरीय हो गया। एक आर्थिक, दूसरा प्रशासनिक। आर्थिक दृष्टि से कहें तो सभ्य, विलम्बित सभ्य और आटविक, और प्रशासनिक दृष्टि से कहें तो उत्तरी राज्य निर्मितियों और महाराज्य निर्मितियों की प्रक्रिया और दक्षिण में इसका आरंभिक विस्तार जिसमें उत्तर की मथुरा के नाम पर दक्षिण की मदुरा नगरी को महत्व मिला और उत्तरी प्रेरणा के प्रसार के साथ दक्षिण के राजाओं का अपने को पांडुवंशी घोषित करते हुए गर्व अनुभव करना और सभ्यता के अन्य घटकों, जिसमें संस्कृत की शब्दावली, मूल्य व्यवस्था , भाषाविमर्श आदि का दक्षिण में प्रवेश और उनके अपने व्याकरण तोल्कप्पियन को अगत्तियन या अगस्त्य के किसी शिष्य द्वारा रचा मानते हुए गर्व अनुभव करना। कहें उत्तर और दक्षिण का पुराना संबंध अनुराग और सम्मान का था परन्तु कबीलाई स्वाभिमान के चलते अपनी निजता की रक्षा के संघर्ष का भी था। महत्वपूर्ण बात यह कि इन बातों का काल्डिवेल को ज्ञान था। वह बहुत बड़ा विद्वान था, सिर्फ ईमानदार न था और उसे एक ओर घालमेल करना था दूसरी ओर अपनी व्याख्या को विश्वसनीय बनाने के लिए सर्वविदित तथ्यों को स्वीकार भी करना था इसलिए उसने यह भी स्वीकार किया कि न तो दक्षिण भारत में उत्तर से भगाये जाने की स्मृति है न किसी संघर्ष की। सबसे बड़ी बात यह कि दक्षिण में संस्कृत का प्रभाव आर्यों के आक्रमण के कारण नहीं पड़ा अपितु दक्षिण भारत के राजाओं द्वारा उत्तर भारत से विद्वानों को आमंत्रित करने और आदर देने और उन मूल्यों को स्वीकार करने के कारण हुआ। इस पहलू को कोई भाषाविज्ञानी क्यों रेखांकित नहीं करता यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय रहा है।

''उन्हीं विद्वानों पर निर्भर करने के कारण तुम किसी चीज को समझ नहीं सकते। सूचनाओं के भंडार के साथ तुम अधिकाधिक मूर्ख होते चले जाते हो। अभी तक तुमको उपनिवेशवादी इतिहास पढ़ाया गया है जिसके अनुसार यहाँ के जन और भाषाऍ सब बाहर से आई हैं। यह आगन्तुकों को आमन्त्रित करता हुआ खाली पड़ा था। कारवॉं आते गए हिन्दोंस्तॉं बसता गया, जब कि सचाई यह है कि एशिया और यूरोप में प्रबुद्ध मनुष्य के प्रसार की कहानी में ही सबसे पहले वह तटीय क्षेत्र को पकड़े हुए भारत पहुंचता है और यहां से उसका प्रसार होता है। परंतु ऐसा भी नहीं है कि यहां बाहर से कोई आया न हो और यहां से बाहर की ओर किसी का गमन न हुआ हो। सब कुछ हुआ है और यह इतना धुंधला भी नहीं है इसको पहचाना न जा सके। उसके आवागमन के पैरों के निशान किसी न किसी कोने में सुरक्षित हैं। ये भाषा में मिल जाएंगे, रीतियों और विश्वासों में मिल जाऍगे। अपना इतिहास तो सभी ने न तो बचा कर रखा न इतिहास के महत्व को इस रूप में समझा कि इसे बचाया जाना चाहिए। इसलिए हमारी भदेश रीतियां-नीतियां और भाषाएं हमारे समाज को समझने में इतिहास के पोथों और उन्नत भाषाओं की तुलना में अधिक सहायक हैं।

''कोल नाम सुना है। दक्षिण भारत की एक भाषा है कोलमी। यह द्रविड़ कुल में गिनी जाती है। कहें उत्तार का कोल समुदाय दक्षिण के भाषाई परिवेश में पहुँचा तो पहचान बनी रही, परन्‍तु भाषा बदल गई जीवनशैल वही रही। कोलम बीच से ले कर कोलंबो तब इसके पाँवों के निशान हैं, पर पहचान बदल गई। उत्तर भारत में को‍ल्डहवा मध्यपाषाणयुगीन स्थल है जिसका समय 6000 ईसा पूर्व माना गया हैा''

’’तुम लोग हर चीज की तारीख पीछे खींचते चले जाते हो। बहुत से लोग इसे इतना पुराना नहीं मानते।‘’

’’मैं जानता हूं। बहुत से लोग इस देश की सांस्कृतिक प्राचीनता और समृद्धि दोनों से घबरा जाते हैं। खींच कर आगे लाना चाहते हैं और कुछ लोग इतना प्यार करते हैं कि हर चीज को सृष्टि के आदि में पहुंचाने की कोशिश करते हैं। जो आगे खींच कर लाना चाहते हैं उसे ही मान लो तो भी बहुत प्राचीन काल से एक समुदाय उत्तर भारत से दक्षिण में कोलम बीच और कोलंबो तक पहुंचा दिखाई देता है। यूँ समझो कि उत्तर से ले कर दक्षिण तक की भाषाओं की बुनियाद एक जैसी है तो यह भाषाओं के बीच लेन देन के कारण नहीं है, उन्हीं लोगों के एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैले होने और एक ही अवस्था से ऊपर उठने के कारण है।''

''छोड़ो इस बखेड़े को, तुम हर चीज को पता नहीं कहां पहुंचा देते हो। सीधे उस बात पर आओ। भाषाओं का जो ताना बाना जिसे तुम एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैला मान रहे थे उसको समझाओ।''

''यह इतना विस्तृत विषय है कि एक या 2 घंटे में इस पर चर्चा नहीं हो सकती। कोई पहलू ऐसा नहीं है जिसमें इधर का तार उधर और उधर का तार इधर न आ रहा हो। पहले इस बात को समझो कि तमिल संस्कृत से पुरानी है। पर तमिल उत्तर भारत की बोलियों के अधिक निकट है, जिसका अर्थ हुआ, हमारी बोलियाँ संस्कृत से अधिक पुरानी हैं और उनमें से किसी के अधिक प्रभावशाली होने के कारण उस भाषा का विकास हुआ जिसे बाद में संस्कृत का नाम दिया गया।

‘’अब हम तमिल के कुछ पहलुओं पर बात कर सकते हैं जो हमारी बोलियों के स्तर का है। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक निकटस्थ के लिए ‘ई’ का प्रयोग चलता है। तमिल आदि में इंगे, इक्कडे, इविडे, पंजाबी इत्थे , भोज. इहॉं, हिन्दी यहॉ, बांग्ला एइखाने। इस नियम से संस्कृत में यहां के लिए इत्र होना चाहिए और दूरस्थ के लिए अत्र या मान लो तत्र। संस्क़ृत का वह पुराना रूप कुडुख में सुरक्षित है जो द्रविड़ में गिनी जाती है, जिसमंं यहाँ और वहाँ के लिए इतरं अतरं चलता है। संस्कृत में भी 'यहाँ से' के लिए इत: प्रयोग में बना रहा। संस्क़त में जो गलतियॉं या विचलनें इतिहासक्रम में हुईं उनका ही निर्यात यूरोप तक हुआ। संस्क़त में इदं अर्थात् यह और तत अर्थात् वह हुआ तो यह अंग्रेजी के इट और दैट में देखा जा सकता है, परंतु इतरं अतरं का अदर अंग्रेजी तक में दिखाई देगा।''

लगता तो है कुछ पर साफ समझ में नहीं आता।
इस पर कल बात करेंगे।

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