मकड़ी का जाल


मैं आज की चर्चा अपने एक मित्र के पत्र से करना चाहूँगा। पत्र निम्न प्रकार है: “--- 1975 में मैंने बीएचयू में तमिऴ सीखी। पहले दिन हमारे लेक्चरर डॉ एन अरुण भारती ने कहा कि हिंदी और तमिऴ में कोई अंतर नहीं है। और मैंने तमिऴ को ऐसे सीखा जैसे मैं हिंदी को नए रूप में पढ़ रहा हूँ। फिर पूरी ज़िंदगी भारतीय भाषाओं के बीच एका तलाशता रहा। नौकरी के आख़िरी तीन साल मैंने मंगळुरु में बिताए। मंगळुरु में दो मंदिर, मंगळादेवी तथा कद्री-मंजुनाथ, बाबा गोरखनाथ ने स्थापित कराए हैं। मेरे मन में प्रश्न उठा कि गोरखनाथ मंगळुरु आने के रास्ते किन भाषाओं में बात किए होंगे, मुँह पर टेप तो लगाए नहीं होंगे। क्या वह भाषा अंग्रेज़ी थी। यहीं पर भाषाओं को बाँटने वाली अवधारणा ध्वस्त हो जाती है। कुंभ-काशी क्या अंग्रेज़ों ने शुरू कराया। मंगळुरु की तैनाती के दौरान मैंने कन्नड़ सीखा और उत्तर-दक्षिण की भाषाओं के विभाजन रेखा को कृत्रिम पाया। कई शब्द हैं दो तुऴु, कन्नड़ और हिंदी में कॉमन हैं। जैसे काला को तुऴु और पूरबी हिंदी में करिया बोलते हैं। ध्यान रहे कि तुऴु और पूरबी हिंदी आदि भाषाएँ हैं। हिंदी का तो अभी जन्म ही हुआ है। मैं जानना चाहता हूँ कि भारत की भाषाओं में कब अलगाव के बीज बोए गए। इसका राजनैतिक अध्ययन भारत के जोड़ने के लिए तुरंत ज़रूरी है।‘’ (बिकास कुमार श्रीवास्तव !) 
आगे कुछ कहने से पहले मैं यह बता दूं कि मैं जब भारत की अनेक भाषाओं के उदाहरण देते हुए अपनी बात कहता हूं तो यह भ्रम पैदा नहीं होना चाहिए कि इन में से किसी की मेरी बहुत अच्छी जानकारी है। कोशिश की सारी भारतीय भाषाओं को सीख लूं परंतु अभी सबकी लिपियां लिखना, व्याकरण समझना पूरा भी नहीं हुआ था, कि उनसे उभरने वाले प्रश्नों के दबाव में भाषा शिक्षा आधी अधूरी छोड़ कर भाषा विज्ञान और वैदिक अध्ययन की और मुड़ गया। फिर इस दिशा में आगे बढ़ पाता कि बीच में इतिहास और पुरातत्व से इनकी गुत्थियों को समझने का दबाव पैदा हुआ और जो संभव था किया। मेरे पास ज्ञान कम भटकाव अधिक है। शब्दभंडार दक्षिण की भाषाओं का कार्यसाधक तक नहीं कहा जा सकता। लिपि सीखने का एक लाभ है कि शब्दकोशों का उपयोग कर लेता हूँ। परन्तु मैं दक्षिण भारत की भाषाओं के विशेषत: तमिल, तेलुगू और कन्नड के महत्व को समझता हूँ और उनके स्वरमाधुर्य से भी परिचित हूँ और चाहता हूँ कुछ लोग ऐसे हों जो इनमें बोलने और लिखने की क्षमता ही अर्जित न करें अपितु उनके अधिकारी विद्वान बनें। मैं वास्तव में अभी अस्पृश्यता और सांप्रदायिकता के ही कुछ पहलुओं पर बात करना चाहता था, पर विषयान्तर हो गया तो पहले उस टेपेस्ट्री या तारवर्की की बात कर लें, उस लगाव को समझ लें, फिर अलगाव की ओर ध्यान देंगे।
हमारे यहाँ भाषाओं के विषय में ऐतिहासिकता की ओर ध्यान अधिक नहीं रहा, भौगोलिकता पर ध्यान अधिक था। कहते हैं, चार कोस पर भाषा बदल जाती है, परन्तु कई बार एक ही गांव में प्रत्येक परिवार की भाषा में एक सूक्ष्म अन्तर वहाँ पैदा होता है जहां पड़ोसी भिन्न भाषाई क्षेत्र की कोई स्त्री परिवार में प्रवेश करती है और स्थानीय बोली को सीखने के क्रम में कुछ समय तक अधगूँगी और फिर मिश्र बोली बोलते हुए पति के परिवेश की भाषा को सीखती बोलती है, और अपनी भंगी, मुहावरे आदि इस पारिवारिक परिवेश में बो देती है। मेरी विमाता मेरे गाँव से चालीस किलोमीटर पूर्व के एक गॉव की थी जिससे हमारे गाँव की रिश्तेदारियाँ थी वहाँ सम्मान सूचक आप के लिए रउऑं चलता है, हमारे यहाँ रउरे, (पर इसका प्रयोग अति नम्रता क द्योतक होता है इसलिए सामान्यत: नहीं किया जाता) वहाँ न के लिए नू चलता है। यहाँ माँ को अपने पुराने प्रयोग से हटना पड़ा, परन्तु उसके शब्दभंडार के कुछ विशिष्ट शब्द थे। जैसे निपट मूर्ख के लिए भकभेल्लर, गमखोर के लिए भर्त्सनापूर्ण गबड़घूइस। इसे हम समझते थे पर इसका प्रयोग स्वयं नहीं करते थे। छोटे भाई की पत्नी उससे कुछ दक्षिण के लगभग उतने ही दूर के क्षेत्र से आई थी, वह अभिधा में बात करना पसन्द नहीं करती। प्रत्येक अभिव्यक्ति के लिए उसके पास एक मुहावरा है। मेरे शहर गोरखपुर में अवध के नवाब ने इमाम की नियुक्ति की थी और उनके साथ कुछ मुसलमान अवध से ही भेजे थे, और मेरे अपने गॉव में अयोध्या से केवटों को आमन्त्रित करके और सुविधा दे कर बसाया गया था जिनके वंशधर आज सात आठ गाँवों में बिखरे हुए हैं, पर कुछ अपनी अवधी भूल चुके हैं और कुछ आज भी अवधी पुट के साथ भोजपुरी बालते हैं। यही हाल गोरखपुर शहर के अवध से आए मुस्लिम परिवारों की है। स्त्रियों की भाषा में कुछ शब्दों और मुहावरों का प्रयोग होता है जिन्हें पुरुष समझते हैं पर बोलते नहीं। बोलें तो स्त्रैण माने जाएंगे। यह मुंडारी में परिगणित किसी बोली का प्रभाव है जिसमें आज भी कुछ बोलियों में स्त्रियों और पुरुषों की भाषा में अन्तर इतना भेदक है कि यदि स्त्री स्त्री से बात करेगी तो भाषा अलग होगी, स्त्री पुरुष से बात करेगी तो भाषा अलग होगी और पुरुषों की बोली अलग होगी, परन्तु पुरुष भी जब महिलाओं से बात करेंगे तो उनमें शालीनता आ जाएगी। इसे अपने आस पास के लोगों में आप भी लक्ष्य कर सकते हैं कि पढ़े लिखे पुरुष तक जिन अशोभन शब्दों और मुहावरों का आपसी बातचीत में प्रयोग करते हैं उनका प्रयोग वे न तो किसी स्त्री से बात करते हुए कर सकते हैं न ही यह जान लेने पर कर सकते हैं कि श्रव्य दायरे में कोई स्‍त्री भी है। भाषा के तथ्य और व्यवहार के बीच दूरी, भौगोलिक दूरी, इनके संगम स्थलों की विचित्रता के बीच चल रहे इन तारों और कशीदों पर ध्यान दें तो भाषा एक ऐसा उद्यान जैसा प्रतीत होगी जिसमें प्रत्येक पौधा अलग होते हुए भी एक ही परिवेश में नहीं है, एक ही वृक्ष के एक जैसे दिखने वाले पत्तों में भी ऐसी भिन्नता है कि समान प्रतीत होते हुए भी कोई पत्ती दूसरी किसी पत्ती के सर्वसद़श और समान नहीं है। इनमें से कुछ बातों की ओर भाषावैज्ञानिकों ने ध्यान दिया है, कुछ की ओर अपनी लाज बचाने के लिए ध्यान दे ही नहीं सकते थे, जब तक कोई इनका भाषाशास्त्रीय विवेचन करने की ही न ठान ले तब तक ऐसा अध्ययन अनुपयोगी भी होगा। निष्कर्ष यह कि भिन्नताओं को अतिरंजित तूल दें तो घरों, परिवारों, अंचलों को भी भाषा के सवाल पर भी एक दूसरे के विरोध में खड़ा किया जा सकता है, और लगाव पर ध्यान दें तो उस छोर तक को अपना बनाया जा सकता है जहाँ तक भाषा के हमारे तार पहुँचते और एक नई रंगत लेकर हम तक वापस लौटते रहे है जिसे लक्ष्‍य करते हुए इमेनो ने भारत को एक भाषाई क्षेत्र माना था। भाषा की इस कशीदाकारी को समझने वाले घबरा जाते हैं क्योंकि यह उन सभी अध्यासों का, सभी मिथ्या प्रतीतियों का जवाब है, जिन्हें ज्ञात कारणों से प्रचारित किया और बेहयाई से जारी रखा गया और इसलिए पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक इसको जानते हुए भी इसे अपने विवेचन में स्थान नहीं देते जब कि वे व्यक्तिगत भाषा या ईडियोलेक्ट तक को लक्ष्य कर चुके हैं।
पहले यात्राएं पैदल ही होती थी इसलिए साधुओं आदि को एक गॉव से दूसरे में पहुँचते ठहरते और एक बोली क्षेत्र को पार करने में ही इतना समय लग जाता था कि वे इस विषय में अतिरिक्त सजगता के बिना ही अनेक भाषाएं सीखते और बोलते आगे बढ़ते जाते थे। गोरखनाथ के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा।
फिर भी विद्वानों के बीच एक मोटा भ्रम यह था कि भारत की सभी भाषाएँ संस्कृत से निकली हैं अत: भिन्नता के बाद भी पृथकता या अलगाव की चेतना नहीं थी। लोग अपनी बोली से इतने आसक्त होते थे कि उससे भिन्न कथन या उच्चारण का उपहास करते थे। परंतु साथ ही यह एक दुविधा भी थी की बहुत से ऐसे शब्द हैं जिन की व्याख्या संस्कृत से नहीं हो पाती। इसकी ओर ध्यान बहुत बाद में गया। संभव है हेमचन्द्र की देसी नाममाला के माध्यम से, पर मेरा अध्ययन इस क्षेत्र में इतना कामचलाऊ है कि मैं यह नहीं कह सकता कि उनसे पहले, मिसाल के लिए वररुचि ने इस पर ध्यान न दिया होगा फिर भी हुआ तो बाद का ही । और इस बोध के बाद भी अलगाव की भावना न थी, कुछ प्रश्न थे जिनका कोई हल तलाशना था। यह उत्तर से ले कर दक्षिण तक व्याप्त धारणा थी।
बांटने का काम मध्यकाल के शासकों ने नहीं किया। उन्होंने सताया, मारा, उत्पीडि़त किया पर दिलों पर चोट न की। ठीक किया, यह तुम कह सकते हो, तुलसी दास को तो शिकायत दंड की करालता से ही थी, ‘साम न दाम न भेद कछु केवल दंड कराल। भारतीय साहित्य से परिचित होने से पहले यूरोपियनों का भी एक ही हथियार था, दंड कराल। भारत में आकर उन्होंने साम, दाम और भेद से परिचय पाया और इसे अपनाया। उनका उससे पहले का इतिहास देखो, भारत से बाहर के देशों और उपनिवेशों के साथ उनके बर्ताव को देखो तो मेरी बात तुम्हारी समझ में आ जाएगी। यह सच है कि दाम का प्रयोग मध्यकालीन शासकों ने भी किया। अकबर से लेकर औरंगज़ेब तक अपनी अनेक लड़ाइयों में रिश्वत के बल पर विजय पा सके थे और उस रिश्वतखोरी को अंग्रेजों ने अपना औजार बनाया परंतु तुलसीदास ने जिस दाम की बात की थी वह इससे भिन्न थी जिसकी ओर मुड़े तो शामत आ जाएगी। परन्तु यह याद दिलाना जरूरी है कि हम पराधीन हुए इसके बाद भी विजेताओं ने हमसे बहुत कुछ सीखा, चुपचाप पचा ले गए कि लगे यह उनकी परंपरा में था, परन्तु हम उनसे कुछ नहीं सीख सके। गुलामी मन, आत्मा और मस्तिष्क के समर्पण से आती है, सामरिक पराजय से नहीं।
जिस आदमी ने दक्षिण को उत्तर भारत से अलग किया उसका इरादा कलह पैदा करने का यदि रहा भी हो तो उसके कारनामों से ऐसा लगता नहीं। वह मानता था कि फोर्ट विलियम कॉलेज में पढ़ाई जाने वाली या विकसित की जाने वाली भाषाएँ दक्षिण भारत के लिए उपयोगी नहीं, इसलिए मद्रास (चेन्नइ) में वैसा ही एक कॉलेज दक्षिण भारत की भाषाओं के विकास के लिए स्थापित किया जाना चाहिए। उसकी नजर में बँटवारा नहीं, प्रशासन था और अभी तक मैकाले का भाषा सिद्धान्त सामने नहीं आया था। इस व्यक्ति का नाम था एलिस। पूरा नाम Francis Whyte Ellis था जो मद्रास में कलेक्टर के पद पर नियुक्त हुआ था। उसके सहयोगियों में थे विलियम्स एर्कसिन और जान लीडेन और उन्होंने पहली बार इस बात का प्रमाण जुटाया कि दक्षिण भारत की भाषाएं उत्तर भारत की भाषाओं से भिन्न है।
बांटने का काम अंग्रेजों ने उसके बाद आरंभ किया जब उनको भारत के विशालतम भू भाग पर अधिकार मिल गया, प्रतिस्पर्धी फ्रांसीसी शक्ति भारत से लुप्तप्राय हो गई और उन्हें विश्वास हो गया कि अब उनका प्रतिरोध करने वाली कोई शक्ति भारत में बच नहीं रही।
कॉल्डवेल इसी दौर में आते हैं। उन्होंने जिस समय अपना काम संभाला उस समय तक दूसरे अनेक विद्वान दक्षिण भारत और उत्त‍र भारत की भाषाओं के संबंध पर विचार कर चुके थे। इसकी कुछ झलक कॉल्डवेल की पुस्तक की भूमिका में भी मिल जाएगी। यदि आप किताब को ध्यान से पढ़ें तो पाएंगे कि वह न केवल उत्तर भारत को दक्षिण भारत से काटने की कोशिश कर रहा था अपितु तमिलों को मलयालियों से भी, श्रीलंका में बसे और जमे हुए तमिलों के विरुद्ध लंकावासियों को भी खड़ा कर रहा था, परन्तु उसने अपना काम इतनी ,खूबसूरती से किया कि किसी को पक्षपात का संदेह तक न हो।
अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद कॉल्डवेल की पुस्तक आज भी बहुत महत्वपूर्ण है और उससे अनेक ऐसे पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है जिनको हम उसके खिलाफ इस्तेमाल भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए उसने प्रतिपादित किया कि द्रविडियन भाषाएं संस्कृत से निकली नहीं हो सकती, परन्तु साथ में यह भी कहा कि तमिल दक्षिण की भाषाओं में सब में अधिक रूढ़िवादी भाषा है। उसने एक अन्य संभावना ओर भी संकेत किया कि संस्कृत स्वयं तमिल जैसी किसी बोली से निकली है या नहीं इस पर अवश्य विचार किया जा सकता है। यह दूसरा विचार बहुत रोचक था और उस मान्यता को चुनौती देता था जिससे भारत पर आर्यों के आक्रमण की बात की जाती थी यदि संस्कृत तमिल जैसी किसी भाषा से निकली हुई भाषा है तो इसका विकास भारतीय भू भाग में हुआ और उन्नत विकास होने के बाद इसका प्रसार देशांतर में हुआ। यह इसमें ध्वनित था इसलिए उसने इस विचार को आगे नहीं बढ़ाया। यह काम हमारे भाषाविदों और भाषाविज्ञानियों का था जो अपना काम ठीक न कर पाए। 
मैं तो दक्षिण और उत्तर की भाषाओं के बीच के उस सूचीकर्म या तारवर्की को भी सामने लाना चाहता था जिससे मकड़ी के एक विशाल जाले का चित्र उभरता है, परन्तु इसे समझना कौन चाहेगा।

https://www.facebook.com/bhagwan.singh.92775/posts/1013877562006983

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें