आत्मघात



‘’यह बात तो किसी से छिपी नहीं है कि देश का बँटवारा उर्दू भाषा को लेकर हुआ था और तुम यह दिखाना चाहते हो कि सब कुछ ठीक ठाक था, मसला लिपि का था।‘’
‘’देखो, भाषा तो बहाना थी। बँटवारा इस दहशत के कारण हुआ था कि भारत स्वतन्त्र होगा तो लोकतंत्र की स्थापना होगी। शासन बहुमत के हाथों में होगा जिसका मतलब है राज्य हिंदुओं का होगा और वह बदले की भावना से काम करेंगे। यह उनकी सोच नहीं थी, मन्त्र फूँक कर, हतचेत करके, इसे उनकी जहन में उतार दिया गया था। उन्होंने हिन्दू‍ इतिहास को ध्यान से पढ़ने तक का प्रयत्न नहीं किया, अन्यथा वे समझते कि जिन मूल्यों ने ही भारत को मुस्लिमबहुल देश होने से बचाया, ईसाइयत का प्रतिरोध किया उन्हीं ने उन उत्पीड़क कर्मों से उसे बचना सिखाया, जिनके कारण एक प्रभावशाली मुस्लिम नेता ने पाकिस्तान बनाने के समर्थन में यह तर्क किया था कि जिन्हें वे अपना नायक मानते हैं उन्हें हिन्दू खलनायक मानते है, और जिन्हें हिन्दू अपना नायक मानते हैं, उन्हें वे खलनायक मानते हैं, इसलिए दोनों समुदाय साथ नहीं रह सकते। 
" वे अपने ही मध्यकाल की यादों से डरे हुए थे और अपने ही मूल्य मानों के कारण डरे हुए थे, क्योंकि वे सोचते थे कि वे जैसा आचरण करते आए हैं वैसा ही दूसरा भी करेगा। यह उनकी सीमा नहीं थी, एकेश्वरवादी सोच की सीमा थी, जिसमें भिन्न मान्यताओं, विचारों, दृष्टियों के लिए तो स्थान होता ही नहीं, आत्मनिरीक्षण तक के दरवाजे बन्द कर दिए जाते हैं और भावना विवेक पर इस तरह हावी हो जाती है कि देखने और जॉंचने की इच्छा‍ तक मर जाती है। अन्यथा मुस्लिम नेताओं ने देखा होता कि मध्यकाल के मुस्लिम शासकों, प्रशासकों और सिपहसालारों के कारनामों के अनुभव के बावजूद किसी हिन्दू राजा या रानी ने मुसलमानों के साथ दुराव तक का व्यवहार नहीं रखा, अत्याचार की तो बात ही दूर है, यद्यपि कई बार इस सद्विश्वास के कारण उन्हें क्षति भी उठानी पड़ी, किसी ने अपने अधिकार क्षेत्र में भी उनके साथ प्रतिशोध या अविश्वास तक का प्रमाण नहीं दिया। जिस मूल्य व्यवस्था ने धर्मान्तरण से बचाया उसी ने इतर धर्मियों का उत्पीड़न करने से भी रोका।‘’
’’यह बताओ, तुम्हें कभी किसी पागल कुत्ते ने काटा था। याद करो, हो सकता है बचपन में काटा हो और सूइयॉं लगी हों, कहने के लिए तुम ठीक हो गए हो, पर जहर तो जहर है यार, उसका हल्का असर कब तक बना रहे कौन जानता है।‘’
’’मैं तुम पर हँसना चाहता हूँ पर हँस इसलिए नहीं पाता कि तुम्हें दु:ख होगा।‘’
’’मैं तुम पर हँसते हुए यह सोच कर रोता रहता हूँ कि तुम घूम फिर कर उसी हिन्दू-मुस्लिम सवाल पर क्यों लौट आते हो। तुम इतने प्यारे दोस्त हो, विचार नहीं‍ मिलते तो क्या, मैं बड़ी पीड़ा के साथ पागल कुत्ते के काटने का मुहावरा तलाश पाया था। उपमा का क्या बुरा मानना।‘’
"परन्तु कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके लिए उपमा तक तलाशने चले तो उपमा दहशत में पीछे हट जाती है। उनमें ही तुम हो । मैं भाषा पर बात कर रहा था और तुम विभाजन पर पहुँच गए और उसका विवेचन किया तो मुझे ही उस बीमारी से ग्रस्त बता दिया जिसका प्रमाण तुम स्वयं दे रहे थे।
‘’सच कहो तो जिस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव था वह हिन्दी‍ नहीं, हिंदुस्तानी थी, जिसमें अरबी फारसी शब्दों के प्रयोग की पूरी छूट थी। उसकी कसौटी थी बोधगम्यता, परन्तु उसको ले कर बहुत चर्चा नहीं हुई थी क्योंकि भाषा केन्द्रीय समस्या थी नहीं, वह मात्र ओट थी। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने जो हिंदी-तमिल, हिन्दी-कन्नड आदि कोश तैयार कराए थे उनमें फारसी अरबी के शब्दों संख्या बहुत अधिक थी और उन छोटे कोशों में जिन्हें शब्दसंग्रह कहना अधिक उचित होगा, ऐसे फारसी और अरबी के शब्द भरे हुए थे जिनका शायद ही कोई प्रयोग करता हो । ज्ञानमंडल के हिन्दी शब्दकोश में फारसी और अरबी शब्दों को बहुत उदारता और विवेक से स्थान दिया गया है। मुस्लिम अभिजात वर्ग का आग्रह अरबी लिपि में लिखित भाषा पर था और इसके पीछे अपनी धौंस जमाने की आकांक्षा अधिक प्रबल थी, अपनी भाषा से प्रेम कम । इसमें प्रगतिशील और दकियानूस का फर्क नहीं था।
"बीमारी भी पुरानी थी। यह विवाद 19वीं शताब्दी में ही पैदा हो गया था और इसमें जान बीम्स की बहुत सक्रिय भूमिका थी, जो परोक्ष रूप से मुसलमानों को इस बात के लिए उकसा रहे थे कि वे अपनी भाषा को अधिक अरबी फारसी मंडित करें, इसे मुसलमानों की भाषा मानें और हिन्दू इसके जवाब में अधिक संस्कृतनिष्ठ भाषा अपनाएँ, जब कि फैलन बोलचाल की शब्दावली की वकालत कर रहे थे। यह नूरा कुश्ती थी। इसकी चर्चा यहॉं उचित न होगी। उनकी यह चाल सफल रही और हिन्दी‍ और उर्दू के पक्षधर उनकी इच्छा पूरी करने लगे थे। हंटर के सामने अपने बयान में सैय्यद अहमद का यह कथन कि ‘उर्दू शरीफों की जबान है और हिंदी गँवारों की जबान‘ और इससे तिलमिला कर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का यह फिकरा कि उर्दू नाचने वाली लड़कियों और तवायफों की जबान है। धनी हिन्दु्ओं की बिगड़ी औलादें और ढीले ढाले चरित्र के नौजवान जब रंडियो, रखैलों और भड़ुओं के बीच होते हैं तो उर्दू बोलते हैं।‘ उस जाल में दोनों समुदायों के नेताओं के फॅसने के प्रमाण हैं। भारतेन्दु स्वंयं भी उर्दू में शायरी करते थे और सन्तुलित चित्त से ऐसी बात नहीं कह सकते थे, पर जवाब तो देना ही था। शब्दों के मामूली फर्क से सैयद अहमद बीम्स के जुमले को ही दुहरा रहे थे तो इसकी प्रतिक्रिया में भारतेन्दु उस पाले में पॉंव रख रहे थे जिसमें बीम्स ने हिन्दी को दरिद्र भाषा सिद्ध करते हुए यह सुझाया था कि हिन्दी में तकनीकी शब्दावली का अभाव ही नहीं है, वैसी शब्दावली बन ही नहीं सकती। हिन्दीं को संस्कृतनिष्ठ बनाने की बीमारी के पीछे यही कारण था अन्यथा हिन्दी के संस्कृतज्ञ भी बोलचाल में संस्कृत के तदभव पदों का ही प्रयोग करते थे। भारतेन्दु स्वयं आजीवन इस बीमारी से बचे रहे।
‘’दुखद यह है इन दोनों फिकरों का खुमार जनमानस पर लम्बे समय तक बना रहा इसके कारण हिंदी उर्दू दोनों की प्रतिष्ठा को अघात पहुंचा । इसका सबसे खतरनाक परिणाम मुस्लिम समुदाय का दबे सुर से अंग्रेजी का पक्षधर हो जाना था। यदि अरबी लिपि में लिखित उर्दू राष्ट्र भाषा न बनी तो उस हिन्दुस्तानी से अच्छा है अंग्रेजी ही जारी रहे। परन्तु इसका सबसे बड़ा नुकसान स्वयं अरबी लिपि में उर्दू के हिमायतियों को ही उठाना पड़ा। देश बँट गया पर न उर्दू पाकिस्तान के कामकाज की भाषा बनी न हिन्दी भारत के कामकाज की और इसका कारण भाषाप्रेम का पाखंड रच कर अपना स्वार्थ साधन था।
हम कहें इस खींच-तान का यह असर तो हुआ ही कि अपनी भाषा के प्रति हिन्दी-प्रदेश में हिन्दी़ या उर्दू के प्रति वह गहरा लगाव नहीं पैदा हो सका जो दूसरे प्रदेशों में देखने में आता है। हिन्दी भाषी क्षेत्र भग्नमनस्कता का शिकार बना रहा और आज भी है। जो भी हो भाषा और संस्कृति की आड़ में देश का विभाजन हो जाने के बाद भी न हिन्दी भारत की सरकारी काम काज की भाषा बनी न पाकिस्तान की राष्ट्राभाषा घोषित होने के बाद भी उर्दू।
‘’भारत की बात अलग है, पाकिस्तान के बारे में तुम ऐसा नहीं कह सकते।‘’
‘’मेरी जानकारी ही कितनी है कि कुछ कहूँ, मैं तो डान में प्रकाशित एक लेख की ओर तुम्हारा ध्यान ले जाना चाहता हूँ जिसके बाद मुझे कुछ कहने की जरूरत ही न होगी। इसके लेखक ने इसे शेयर करने की अनुमति दे रखी है इसलिए इसे शेयर करना ही समझ सकते हो:
The status of Urdu is a major issue which does not seem to be getting its due share of attention; in fact it seems to be getting no attention at all, either by the government or by the citizens. Current policies and trends have seen a pathetic downfall in the status of our national language.
The language policy according to the Constitution of Pakistan is
1. The national language of Pakistan is Urdu, and arrangements shall be made for it being used for official and other purposes within 15 years from the commencing day.
2. The English language may be used for official purposes until arrangements are made for its replacement by Urdu (Article 251 of the Constitution of the Islamic Republic of Pakistan, 1973)
It has been 62 years but unfortunately our government has failed to take appropriate measures to replace English with Urdu.
The status of Urdu is a major issue which does not seem to be getting its due share of attention; in fact it seems to be getting no attention at all, either by the government or by the citizens. Current policies and trends have seen a pathetic downfall in the status of our national language.
The language policy according to the Constitution of Pakistan is
1. The national language of Pakistan is Urdu, and arrangements shall be made for it being used for official and other purposes within 15 years from the commencing day.
2. The English language may be used for official purposes until arrangements are made for its replacement by Urdu (Article 251 of the Constitution of the Islamic Republic of Pakistan, 1973)
It has been 62 years but unfortunately our government has failed to take appropriate measures to replace English with Urdu.
We have seen nations progressing because of taking pride in their national language and their identity but we on the other hand are content with hiding our real identity and feel 'embarrassed' in relegating the status of our national language. We consider those backward who prefer to talk in Urdu while speaking in English has become a symbol of status.
Another problem relevant to the language issue is the flaw in our educational system. It was the government's responsibility to take proper steps to raise the status of Urdu among citizens which could very well have been achieved through the educational system.
But there is no unanimous educational system in Pakistan. In majority of the systems, English is made compulsory and students are encouraged to talk in English which not only suppresses their love for their national language but also makes the students studying under Urdu-based systems victims of inferiority complex.
Furthermore, citizens are forced to learn English for better job opportunities. Is this supposed to be the policy of a country with Urdu as the national language?
Another point which I would like to add here is that the current trend of writing Urdu in Roman script in SMSs and emails has led to further deterioration in the language's quality. Mobile phones with Arabic are available in our country, then why not those with Urdu?
It's high time the government took essential steps like revising the education policy and promoting Urdu writing, debates and poetry competitions on the national level.
The people, especially the youth of Pakistan, should participate in this by bringing about a change in their thoughts and reunite for this cause.
FARIHA SAGHIR 
Karachi

1 टिप्पणी:

  1. This the calamity of all the nations.all the people caught in the menace of english.medium of instructions also in English.Nstion languages in all countries are being throwing away. Language is thought process language is culture. Samrajyavadaka daireme Sab khuch chal rahahai.

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