पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा


''क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारी बातें कुछ गरिष्ठ हो जाती हैं? ’’
''जानता हूं लॉलीपॉप चूसने वाले बच्चों को रोटी से घबराहट होती है। हम साहित्य के नाम पर केवल कविता कहानी चुटकुले और हल्के फुल्के व्यंग्य के आदी हैं, भावुकता को खुराक देने वाले साहित्य के आदी हैं जिससे आनंद तो आता है परंतु विचार-विमुखता भी पैदा होती है, एक बौद्धिक रिक्तता भी जिसमें समाज के कर्णधार माने जाने वाले लोग हुड़दंग में शामिल हो कर नाम कमाने लगते हैं। देश को तोड़ने वाले इतने आयोजनों के बीच उस देश को समझने की कोशि‍श भी गरिष्ठ लगने लगती है। मैं तुम्हा्रे बौद्धिक आलस्य की दवा करना चाहता हूँ। तुम्हारी रुचि बदलना चाहता हूँ। मालिश का शौक छुड़ा कर व्यायाम की आदत डालना चाहता हूँ।‘’ 
’’मेरा मतलब यह नहीं था, भार्इ। मैं सिर्फ यह कह रहा था कि क्या इन्हीं विचारों काे कुछ और सरल बना कर नहीं रखा जा सकता जिससे अधिक से अधिक लोग इसे समझ सकें?''
''कहा तो जा सकता है, एक ही बात को कई तरह से दोहराया भी जा सकता है, परंतु उसके बाद भी जरूरी नहीं कि जो न समझना चाहता हो उसकी रुचि ऐसे विषय में पैदा हो जाए। कुछ कहते समय सरलता से अधिक जरूरी है सटीकता। यदि बात सटीक ढंग से न कहीं गई तो सरल भाषा में कहने पर भी समझ में नहीं आएगी। आनन्दमार्गी साहित्य की लत से हमें बौद्धिक रूप में इतना खोखला कर दिया गया है कि उस खोखलेपन को भरने के लिए हमें हंगामों का सहारा लेना पड़ता है और उनमें शरीक होते समय लोग सोचते तक नहीं कि इसका अनुपात क्या होना चाहिए, किसी समस्या का समाधान क्या होना चाहिए, यह तक तय नहीं कर पाते कि अपने ही समाज और देश को लगातार उद्विग्नता की स्थिति में रख कर वे उसे किस दिशा में ले जा रहे हैं? "
''तुम क्या किसी से कम हो। कोई बहाना मिल जाय उसी हंगामे में तुम भी शामिल हो जाते हो, हाँ दूसरी ओर से। तुम उसी बात को कुछ और साफ करो जिसे कल उठाया था। मुझे उससे कोई परेशानी नहीं थी। सच कहो तो मुझे बहुत मजा आ रहा है यह सोचकर कि कैसे हमारे तार एक दूसरे से जुड़े हैं। सच कहो तो इन तारों को न हम लक्ष्य कर पाते हैं न हमारे समाजशास्त्री और ऩ नृतत्ववेत्ता, फिर भी ये सूत्र कुछ इस तरह काम करते रहते हैं कि तोड़ने की इतनी सारी कोशि‍शों के बाद भी इसका अपनत्व बना रहता है।'' 
''अभी तो तुमने इस तार के भीतर की पहलों को देखा ही नहीं। देखो, ये सभी स्थानवाची अव्यय तीन घटकों से बने हैं, ई/इ/य जो निकटता को प्रकट करता है और आगे अंक, कड, इड, इल, खान, हान या हॉ, ठान, त्थ आदि जिन सभी का अर्थ स्थान है और सबके साथ ए की विभक्ति लगी है जो में या पर का सूचक है। यह ए संस्क़ृत में भी गृहे, बने आदि में मिलेगा। तमिल का अंग और सं; का अंक एक ही हैं। इला और इल एक दूसरे से जुड़े हुए हैं अभी इन तारों के कुछ और पहल हैं जिनको देख कर तुम चकित रह जाओगे।
'' देखो यह जो तमिल का इंगे है इ-अंक-ए मिले हुए हैं। अंक का मतलब हुआ स्थान, इविड में इ के साथ इड जुड़ा हुआ है डसका अर्थ है जगह । बांग्ला खाने में खान का अर्थ है स्थान एक और प्रयोग भोजपुरी में होता है यह भी स्थान का ही सूचक है और इसी तरह पंजाबी का त्‍थे वही है भोजपुरी अौर हिंदी का हां तरह की गहरी समानता भाराोपीय बोलियों में भी नहीं मिलेगी। वहाँ सीधे स्वीकार है और उस स्वीकार में अटपटापन है। वाक्य विन्यास भी एक जैसा है कर्ता- कर्म- क्रिया। इनके विशेषण इनसे पहले। यह नियमितता भारोपीय बोलियों में नहीं पाई जाती। अंग्रेजी आदि में क्रिया कर्ता के ठीक बाद आती है और कर्म उसके बाद। बड़ी मशक्कत से काल्डवेल ने तमिल आदि की वाक्य रचना को अलगाने के लिए यह फर्क निकाला कि हिन्दी आदि में सहायक वाक्य मुख्य वाक्य से पहले आएगा, ‘मैंने सुना है कल फिर बरसात होगी’ तमिल आदि में उलट जाता है, जिसमें कल फिर बरसात होगी, ऐसा मैने सुना है जैसा वाक्य बनेगा परन्तु उत्तर की बोलियों में, भाषाओं में और संस्कृत तक में यह प्राय: देखने को मिल जाएगा।'' 
'''बोर कर दिया। तुम उस कशीदाकारी की बात करने वाले थे जिसमें एक शब्द दूसरे सिरे पर पहुँच कर नई रंगत लेता है फिर उसके साथ लौटता है और एक नई रंगत लेकर वापस लौटता है। ऐसा झटके में कह गए थे?"
''पीने के अर्थ में तमिल में कुडि का प्रयोग होता हैा इससे भ्रम पैदा होता है कि यह दक्षिणी बोलियों का शब्द है। परन्तु संस्‍कृत कु/कुं का अर्थ ह पानी। कुमुद/कुमुदिनी का अर्थ है पानी में मगन रहने वाला/वाली, कमल, कमलिनी। कूप, कुँआ, कुंभ –जलपात्र, कुंभी, कुप्पी- द्रव रखने की थैली, कुड, कूँड़ा त; कुडम्, कुडिक्कारन – पियक्‍कड़। 
त. पो – जाना, सं; पवि – क्षेप्यास्त्र, पवन – चलने वाला, अर्थात् वायु, (वायु: वाति), 
त. में ऑख के लिए कण् का प्रयोग होता है संस्क़ृत सहित उत्तर की भाषाओं में अक्षि- ऑख, चक्षु – बां. चोख आदि । अब इस भिन्नता के कारण पहली नजर में दोनों में भिन्नता दिखाई देगी। पर त. में कण् का एक और अर्थ है गोलाकार गड्ढा जो अक्ष का भी अर्थ है। संकल्पना के स्तर पर इस समानता से आगे बढ़ने पर हम सं. और हिन्दी आदि में कनीनिका या ऑंख की पुतली (इस पुतली के साथ हो सकता है आपको अंग्रेजी का प्यूपिल भी याद आ जाये), काणा या काना, कण्व – द्रष्टा (सायण ने कण्व का अर्थ काना लिया है, फिर भी आँख से संबन्ध तो बना ही हुआ है), प्रस्कण्व – चिचक्षण। परन्तु इससे पीछे भाषा के विकास का एक स्तर है जिसमें भारतीय भाषाओं में जिन वस्तुओं में अपनी कोई ध्वनि नहीं होती उन सबके लिए शब्द जल के पर्यायों से लिए गए है जिसकी प्रत्येक ध्वनि को एक उच्चार्य शब्द के रूप में ढाल कर इसके सूक्ष्म भेदों के लिए अलग शब्द बनाए गए और फिर उनमें से ही किसी या किन्हीं का प्रयोग नीरव भावों, पदार्थों, क्रियाओ आदि के लिए किया गया, यद्यपि क्रिया का अर्थ ही है ध्वनि का उत्पादन। इसे यहॉं नहीं समझा जा सकता। इस पर मैं बहुत बाद में चर्चा करूँगा । परन्तु यहॉं उस नियम को लागू करें तो कन् का अर्थ है जल, कंज का अर्थ है जलज, कनखल, कानपूर कन्नौज, कनइल, कनराय आदि का अर्थ है जलतटीय स्थल, कनक आ अर्थ है चमकने वाला और कनीनिका का अर्थ है देखने वाली। 
इनमें धागे की वह कशीदाकारी समझ में नहीं आती, यद्यपि है. इसलिए एक अन्य उदाहरण को लो। तमिल में दूध के लिए पाल् का प्रयोग होता है, तेलुगु में यह पालु हो जाता है, हिन्दीे का पालन अर्थात् दूध पिला कर पोषण करना इसी से निकला है और इस तरह पालित शिशु के लिए बाल या बालक का विकास इसी से हुआ है, परन्तु। हिन्दी का पाला जो तुहिन या फ्रास्ट के आशय में प्रयोग में आता है क्या इस पाल् से निकला है। नहीं। इसके पीछे जाने पर हमें प्ल, प्लव, प्ला‍वन आदि जल से जुड़े शब्द मिलते हैं। अब हमें पता चलता है कि पानी के लिए जिस शब्द का प्रयोग हुआ, उसी का अर्थविस्तार दूध, अमृत, आदि के लिए भी हुआ और ठंड तथा बर्फ आदि के लिए भी। पा, पी, पानी, पय, वीयूष, अम, अम्बु , अमृत। पहली नजर में जो द्रविड़ मूल का शब्द दिखाई दे रहा था अब उसकी जड़ें आर्यभाषा में दिखाई दे रही हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि इन शब्दों का स्रोत तथाकथित आर्य भाषाऍं हैं, बल्कि यह कि यह साझेदारी इतनी जटिल है कि हम अपनी भाषा संपदा को आर्य या द्रविड़ न कह कर भारती कहें, कम से कम उस भाषा को भारती कहें जिसका प्रसार भारत से ले कर यूरोप के छोर तक सीधे और उससे आगे का प्रसार उन क्षेत्रों के कारक तत्वों के कारण हुआ था तभी हम समझ पाऍंगे कि यूरोप तक पहुँची संपदा में द्रविड़ के तत्वे जिन्हें काल्ड्वेल ने लक्ष्यू किया था क्यों हैं और जैसा कि हाफमैन आदि ने बाद में लक्ष्य किया, मुंडारी के तत्व यूरोप तक कैसे पहुँचे है। यहॉं इनकी चर्चा जरूरी नहीं। तुम थक भी रहे होगे, फिर भी काल्डवेल की एक टिप्पेणी के साथ अपनी बात समाप्त् करना ठीक रहेगा: 
The distinctive marks of the neuter gender, in the Dravidian languages, even agree with those of our languages to so great an extent that it does not appear probable that these two circles of languages should have developed the neuter gender quite independently of each other. The Dravidian languages have not yet been proven to belong to our own sex-denoting family of languages; and although it is not impossible that they may be shown ultimately to be a member of the family, yet it may also be that at the time of the formation of the Aryan languages a Dravinian influence was exerted upon them, to which this, among other similarities is due.72
गौर करो। काल्डवेल भी जानता था या उसे इसका आभास था कि जिसे वह द्रविड़भाषा परिवार कह कर संस्क़ृत से अलग कर रहा था उसकी गहरी पड़ताल में उतरने पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि इन दोनों में बुनियादी अलगाव नहीं है, फिर भी हमने उस दिशा में प्रयास तक न किया। इस देश को तोड़ने वाले तक समझदारी बरत रहे थे कि आगे चलकर उनकी बात गलत सिद्ध हो तो भी उनकी अकादमिक साख को बट्टा न लगे, परन्तु हमने अपना काम नहीं किया। हम राजनीति करते रहे और आज भी कर रहे हैं, जैसे हमारा अपना कोई घर ही न हो।दूसरे के घर में हम या तो भार बन कर रहेंगे या उसकी चाकरी करते हुए। राजनीति की भागीदारी ने साहित्ययकार को इन्हीं दो में से कुछ न कुछ बनाया है। मालिक बन कर केवल अपने घर में रहा जा सकता है जिसे हमने या हमारे पुरखों ने बनाया है और हमें सौंप गए हैं। उसकी मर्यादा की रक्षा तक हम नहीं कर पा रहे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें