हिंदी की तरफ लौटे थे गालिब



'यह बताओ, तुम्हारे पास जादू की कौन सी छड़ी है जिससे तुम हिन्दी को भारतीय संपर्क भाषा बनने का सपना देखते हो और कौन सी ऐसी भिन्नताएं हैं जिनके कारण तुमको पाकिस्तान में उर्दू की स्वीकृति असंभव लगती है।''

''इतने सारे सवाल । मैं तो इनमें पहले का ही जवाब दे सकूँ तेा धन्य समझूँगा। पहली बात यह जादू की छड़ी न तो कभी मेरे पास थी, न ही उसकी कामना करता हूँ। छड़ी का जादू छड़ी के हटते ही टूट जाता है। मेरे पास इतिहास की एक मोटी समझ है जिसमें यह संभव प्रतीत होता है।''

''यह समझ सिर्फ तुम्हें है, और किसी को नहीं।''

''दूसरों को इतिहास की बारीक समझ है इसलिए वे इसके साथ छेड़छाड़ करते रहते हैं, इसालिए उसे समझ नहीं पाते। वे उससे डरते हैं, उसे अपनी भट्ठी का ईंधन बना कर रखना चाहते है, और लापरवाही में अपना हाथ भी जला लेते हैं। मैं उसे देखता हूँ, उसके रुख को पहचानता हूँ और उससे संवाद तक कर लेता हूँ क्योंकि उसकी संकेत भाषा समझता हूँ।''

''तब तो तुम्हारी आरती उतारनी पड़ेगी।''

''उसमें तो सीधे आग से पाला पड़ेगा और तुम अपनी दाढ़ी भी जला बैठोगे। इसलिए ऐसा जोखिम मत उठाओ, मैं तुम्हें स्वयं उसके पास ले चलता हूँ।''

''देखो, उन्नीसवीं शताब्दी में कोई इस बात का सपना तक नहीं देखता था कि यह देश कभी आजाद हो सकेगा, सिर्फ अंग्रेजों को पता था कि उनके पॉंव जमीन पर नहीं है, वे अधर में लटके हुए है, उन्‍हें यह आशंका भी थी कि 1857 के दमन का गुस्‍सा भारतीय मानस में भरा हो सकता है और कभी उग्र रूप ले सकता है। इसलिए वे तभी तक सुरक्षित है जब तक भारतीय आपस में लड़ते रहें। यह नीति उन्होंने टीपू (1799) की पराजय और उसके बाद दूसरे मराठा युद्ध में विजय (1805) और 1815 में तीसरे मराठा युद्ध में मराठा प्रतिरोध को पूरी तरह चूर करने के बाद जब कहीं से प्रभावशाली प्रतिरोध का खतरा नहीं रह गया तब अपनाई। इससे पहले वे यह मान कर चल रहे थे कि उन्होंने बंगाल की जमीन मुसलमान शासकों से छीनी थी सो मुसलमान ही उनके विरोधी हो सकते हैं, हिन्दुओं को मुस्लिम शासन से मुक्ति मिली है इसलिए वे आसानी से हमारे साथ आ सकते हैं, उन्होंने हिन्दू सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन और इसके नकारात्मक पक्षों की उपेक्षा करते हुए केवल धनात्मक पक्षों को उजागर करने की नीति तो अपनाई ही, इस बात की सावधानी भी बरती कि मिशनरियों की गतिविधियों को काबू में रखा जाय, जिससे वे जिन हिन्दुओं का सहयोग और समर्थन चाहते हैं वे बिदक न जायँ। यह याद रखना जरूरी है कि मुसलिम प्रतिरोध बंगाल में 1857 के संग्राम के बाद भी जारी रहा और उसी से चिन्तित हो कर हंटर ने जो खुफिया विभाग के प्रधान रह चुके थे मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध करने या कहें आपसी झगड़े लगा कर अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का रास्ता अपनाया था।

''तुम किसी बात को इतना फैला देते हो, यदि मुझे तुम्हारी बीमारी को नाम देना हो तो इसे डायलोफीलिया नाम दूँगा और तुम्हें समझाने का प्रयास करूँगा कि तुमको किसी अस्पताल में भर्ती हो जाना चाहिए।''

''और यदि मैने पूछ लिया कि कौन सा अस्पताल तो तुम उसका नाम बताओगे जिसमें तुम आते जाते रहते हो। तुम्हें अपने अस्पलताल से भी प्रेम है और अपने आप से भी, और तुम जो अच्छे नंबर लाते रहे हो वह हिस्ट्री मेड ईजी, साइंस मेड ईजी, यूनिवर्स मेड ईजी जैसी किताबें पढ़ कर। तुम्हें झटपटिया ज्ञान है और मैं तुम्हें उस मनोविश्लेषण से गुजारना चाहता हूँ जिसमें अवचेतन की गहराइयों में उतर कर समस्याओं का कारण समझा जाता है, समाधान वहॉं नहीं मिलता। समाधान कारण को जानने के बाद हमें ही तलाशना होता है। 
"तुम्हें आज इतनी ही खूराक काफी है। पहले इसे पचा लो तो उन गॉंठों पर बात करेंगे जिनसे मुक्ति के बिना हम राष्ट्रकवि की उन सरल पंक्तियों का भी अर्थ नहीं समझ सकते जो निरक्षरों को भी बोधगम्य लगती हैं : 

हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी।

अब इस तथ्य पर ध्यान दो कि मध्यकाल में शासकों के जो भी अन्याय रहे होंं सामान्य हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कटुता न थी । इसका प्रधान कारण यह था कि मुसलमानों का नब्बे प्रति शत धर्मान्तरित हिन्दू थे जिन्हें विवशता में ऐसा करना पड़ा था। इसलिए दफ्तरों की भाषा जो भी रही हो आम बोलचाल की ज़बान ऐसी थी जिसमें कुछ अरबी फारसी के शब्द थे जबान हिन्दी थी, हिन्दी ही कही जाती थी ।
सभी मुसलमान अपने क्षेत्र की बोली जानते और बोलते थे। विदेशी मूल पर गर्व करने वाले आपस मे तुर्की या फारसी बोलते थे । कविता करते समय उनकी जबान में कुछ ऐसे शब्द भी आ जाते थे जो आम बोलचाल में नहीं आए थे । पर इसे एक दोष माना जाता था । मीर का यह कथन कि 'क्या जानूँ लोग कहते हैं किसको सरूरे कल्ब । आया नहीं है लफ्ज ये हिन्दी जबाँ के बीच।' इस सचाई को बयान करने के लिए काफी है । हाली के बारे में एक बार शमशेर बहादुर सिंह ने बताया था कि वह शब्द विचार के मामले में कहते थे कि हमारे घर में । इसके लिए यह बोला जाता है, अर्थात महिलाओं की बोली को वह भाषा की कसौटी मानते थे। जौक ने गालिब की भाषा का मजाक उड़ाते हुए कहा था मजा कहने का जब है एक कहे और दूसरा समझे, मगर इनका कहा ये आप समझें या खुदा समझे । गरज नाम भले उर्दू भी चलन में आ गया था पर उसका मतलब भी हिन्दी या आम बोलचाल की भाषा ही था, इसलिए भाषा को लेकर हिन्दू मुसलमान का फर्क न था । गालिब भी अपनी चूक सुधारने की ओर मुड़े थे । उनके वे ही शेर लोकप्रिय हैं जो आम जबान और मुहावरों में हैं। यह अलगाव 1870 के बाद प्रयत्न पूर्वक पैदा किया गया और इसी तरह गोकुशी को सह दे कर, कराने की कोशिशें शुरू हुंईं कि जिससे उनके कसाईखानों की ओर ध्यान न जाय। इसे प्रचारित जान बूझ कर किया जाता था। इसको खुले आम कराने के प्रयत्न के बाद भी ऐसा विरल मामलों में ही होता था ।
'तुम फिर बहक रहे हो।'
'तुम ठीक कहते हो । यह समझो कि औरंगजेब ने भी अपनी मौत को निकट जान कर जो 
दर्द और अफसोस भरा, लगभग आत्मग्लानि भरा पत्र दक्षिण भारत से अपने पुत्र को लिखा था उसे मुस्लिम शासकों के व्यवहार में एक मोड़ माना जा सकता है जिसमे भारतीय जमीन और जन से जुड़ने की तड़प साफ देखी जा सकती है यही कारण है 1857 में । हिन्दू मुसलमान दोनों में इतना एका पैदा हो सका।
"यह पँवारा तुम क्यों दुहरा रहे हो?"
"यह याद दिलाने के लिए कि उन्नीसवीं सदी में भारतीय समाज अधिक एकजुट था, कि 1857 का संग्राम हमारे जातीय आक्रोश की अभिव्यक्ति था, उसका लक्ष्य ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने का था, जबकि सैयद अहमद का अभियान और कांग्रेस का लक्ष्य अपने और अपनों के लिए रियायतें माँगने का था। इसमें नजर किसको क्या मिला इस पर थी और जब इसने डोमिनियन स्टेटस या स्वतन्त्रता की माँग करना शुरू किया तब भी इसमें ऐसों का बोलबाला था जो अपने लिए कुछ चाहते थे और लगे हाथ कुछ देश को भी मिल जाय तो उस पर उन्हें आपत्ति न थी।

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