गाँधी मेरी नजर में बीसवीं शताब्दी के अकेले ऐसे नेता थे जिनको सत्ता की भूख नहीं, एक नया भारत बनाने की उत्कट कामना थी जो आधुनिक भी हो, स्वावलंबी भी हो और अपनी जमीन पर दृढ़ता से खड़ा भी हो।
अकेले नेता नहीं, दूसरे । ये सपने सबसे पहले स्वामी दयानन्द ने देखे थे। वह क्षेत्र जिसमें गाँधी का प्रभाव सबसे गहन था और वे मसले जिनको गाँधी ने अपने सरोकारों से जोड़ा, और वह जमीन जिसमें गाँधी अपनी फसल उगा सके दयानन्द सरस्वती ने तैयार की थी। उनके सामने भी पूरे समाज का विकास था, आधुनिकता और परंपरा की गहरी समझ, सामाजिक भेदभाव का निवारण, स्त्री शिक्षा का उपक्रम, कुरीतियों, जैसे बाल विवाह, का निषेध और सामाजिक वर्जनाओं, जैसे विधवा विवाह, का विरोध और उच्च जीवनादर्शों का पालन आदि के बहुमुखी और समावेशी कार्यक्रम थे और इनसे जुड़ी थी स्वतन्त्रता की कामना।
तुम इस बात से प्रसन्न होते हो कि मैं दयानन्द को गाँधी से बड़ा और उनसे प्रगतिशील मानूँ तो मान लूँगा। स्वामी जी कई मामलों में गाँधी से आगे थे, उदाहरण के लिए वह विधवा विवाह की बात कर सकते थे, गाँधी सनातनी थे और वर्ण विभाजन तक को मानते थे। कुछ दूसरे मामलों में गाँधी अधिक समावेशी थे, जैसे वह अकेले सभी मतों के लोगों को साथ ले कर चलने की बात करते हैं जब कि दयानन्द जी हिन्दू समाज को भी ले कर नहीं चल सकते थे। उनके कुछ सूत्र कबीर से जुड़ सकते हैं। सबकी आलोचना करते हुए, उनके ढोंग और पाखंड का उपहास करते हुए एक नई राह पर चलने का आह्वान और वह नई राह स्वयं बनाने का प्रयत्न और अकेले दम पर एक आंदोलन और संगठन खड़ा कर सकते है । गाँधी से कम चुंबकीय व्यक्तित्व नहीं था उनका। परन्तु तुम मेरी बात पूरी सुना तो करो। मैंने बीसवीं शताब्दी का अकेला नेता कहा था, अकेला नेता नहीं। उन्नीसवीं शताब्दी के अधिकांश नेताओं में ओजस्विता और तेजस्विता थी। बीसवीं शताब्दी में सबका परिपाक अकेले गाँधी में मिलेगा। तुमने कबीर की ठीक ही याद दिलाई, द्विवेदी जी कबीर के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए उन्हें अनेकों विरोधों की संधि भूमि पर खड़ा दिखाते हैं।
आज भी जय गांधी जय जय जय गांधी ही चलेगा। तुम ऊबते भी नहीं हो।
मैं यह भी याद दिलाना चाह रहा था कि जिस नये मानव का और ऐसे मानवों से ऊर्जस्वित भारत का सपना वह देख रहे थे, उसके नागरिक शिक्षित होंगे, स्वस्थ होंगे, एक दूसरे से प्रेम करने वाले होंगे और स्वतन्त्र होंगे। उनकी रूढ़िवादिता में भी प्रगतिशील तत्व हैं और एक सोच भी है कि एक व्यवस्था को जो हजारों साल से चली आई हो तुम एक झटके में तोड़ तो सकते हो, सर्वव्यापी वैकल्पिक व्यवस्था बना नहीं सकते । इसलिए वह इसके साथ हड़बड़ी में कोई बदलाव न करके पहले उसके सबसे विकृत पक्ष को दूर करना चाहते थे । यदि मेरे कथन में कहीं यह लगे कि वह अखोट थे तो विराटता अखोट नहीं होती, लघुता में ही यह संभव है। तुम हिमालय की ऊँचाई भी चाहो और यह भी चाहो कि उसमें खड्ड खाई न हो यह संभव नहीं, यह पिरामिड में अवश्य संभव है, ओबेलिस्म् या लाट में अवश्य संभव है।
मैं जिस विषय पर आना चाहता था वह यह कि गाँधी अकेले हैं जिनमें उन्नीसवीं सदी की विद्रोही उर्जा और बीसवीं सदी के निहत्थेपन के मेल से असहयोग और सत्याग्रह के हथियार गढ़ने की क्षमता थी। गाँधी के इस हथियार के व्यापक प्रसार से मानसिक रूप में यह फैसला हो गया था कि अब स्वराज्य को रोका नहीं जा सकता। अब अंग्रेजी शासन भी मनोवैज्ञानिक पराजय स्वीकार कर चुका था और यह सौदेबाजी आरंभ कर चुका था कि कितना देना है, कैसे देना है, कितनी तैयारी के बाद देना है, और किनको किनको क्या देना है कि किसी के प्रति अन्याय न होने पाए और इस बहाने वह ऐसी परिस्थितियां पैदा करने की कोशिश में लगे थे जिसमें परिस्थितियां इतनी बेकाबू हो जायँ कि स्वतन्त्रता की मांग करने वाले स्वयं हथियार डाल दें और कहें हुजूर आप ही इसे संभाल सकते हैं आप ही तब तक सँभालिये जब तक हम दोनों सौतेले भाइयों में मिल जुल कर रहने की समझ नहीं पैदा हो जाती और गाँधी जानते थे कि जब तक अंग्रेजी हुकूमत है वह दोनों भाइयों के बीच प्रेम तो दूर समझदारी तक पैदा नहीं होने देगी। यहीं गाँधी एक ऐसे असमंजस के शिकार हो गए थे कि वे भी जल्द से जल्द ब्रितानी दबोच से बाहर लाने के उस अभियान में शामिल हो गए थे और इस आशा में शामिल हो गए थे कि जिन कामों और तैयारियों को वह मानवाकार जंतुओं को मनुष्य बनाने के लिए जरूरी समझते हैं वे स्वतन्त्र भारत में ही पूरी हो सकती हैं।
‘’तुम्हारे मन में अंग्रेजों के प्रति इतना जहर भरा हुआ है कि तुम सोच ही नहीं सकते कि उनमें कोई सदाशयता भी थी। मुस्लिम लीग जिसे तुमने सौतेला भाई कहा वह उसके बाद आती है।‘’
’’देखो सैयद अहमद के बाद नीरद चन्द्र चौधरी दूसरे आदमी थे जो अंग्रेजों को दुनिया का सबसे सभ्य समाज और उनके शासन को सबसे सभ्य शासन मानते थे। उस कतार में तुम मुझे तीसरी जगह पर खड़ा मान सकते हो और मैं तुम्हारे आकलन से सहमत भी हो जाऊँगा, क्योंकि अंग्रेजों ने जो कुछ भी किया अपने निजी हित के लिए नहीं, अपने देश के हित के लिए किया। हमारे अपने राजनीतिज्ञों ने, नेहरू से ले कर आज तक के कांग्रेसियों ने, अपने और अपनों के हित को प्रधानता दी और देशोद्धार करने वाले सभी संगठनों ने, देश और समाज को बांटने और लूटने की जिस नीति को अपनाया उसे देखने के बाद वे भी श्रद्धेय बन गए, श्रेष्ठता के कारण नहीं, हमारे अपने ही नेतृत्व से कम जघन्य होने के कारण। जघन्यता को भी देश सेवा बताया जा सकता है, इसकी तो पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, परन्तु हाल में अकारण या कुतर्कपोषित कारणों से जिस तरह के देशविघातक आयोजन होने लगे हैं उसे देखते मेरा अपना भी पतन हो रहा है, कुछ लोग मुझे बौद्धिक से अधिक ज्योतिषी मान सकते हैं क्योंकि मैंने पीछे कभी कहा था कि कांग्रेस और वामपंथी दलों के पास अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए कोई औचित्य बचा नहीं है, इसलिए ये उसी बॉटो और बचे रहो की राजनीति कर सकते हैं और देश का अकूत अहित करते हुए अपने निजी हितों को आगे बढ़ा सकते हैं। मुझमें तो इतनी समझ नहीं न इतनी सावधानी है परन्तु फेसबुक पर मेरे एक मित्र को यह पता था कि अभी हाल के राष्ट्रद्रोही हुड़दंग में अपनी रोटी सेंकने वाले करात और येचुरी और राजा के मार्क्सवाद और उनकी गाड़ियों के मॉडल और उनके अपने बच्चों के लिए चुने हुए देश और उसमें उनके भविष्यसपनों के बीच जो दूरी दिखाई दी उसमें उनका वह चरित्र भी सामने आया कि ये आज के टुच्चे नेता अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए अपनी पार्टियों को, अपने देश को और कहते हुए दुख होता है, पर सच का तकाजा है, अपनी माँ को भी बेच सकते हैं।
गाँधी यह जानते थे। अकेले वह थे जो कह रहे थे कि भले सत्ता मुस्लिम लीग को सौंप दी जाय, परन्तु देश का बँटवारा नहीं होना चाहिए। अकेले वह थे जो कह रहे थे कि कांग्रेस कुछ पाने के लिए बना एक संगठन था, अब वह प्राप्त हो गया इसलिए अब इसका नाम बदल दिया जाना चाहिए। पर जिनके पास अपना कुछ न था और जो स्वतन्त्रता को अपनी खानदानी जागीर बनाना चाहते थे उन्होंने वैसा न माना, न होने दिया, न गाँधी को जीने दिया। गाँधी महान नहीं थे, उनमें महिमा के अनेक शिखर थे और कुछ खाइयाँ भी परन्तु आधुनिक भारतीय मनीषा के शिखर वही हैं और आज के जगत में सबसे सार्थक और अनुकरणीय वही हैं और उस आदमी ने कहा था कि लोगों को बता दो गांधी को अंग्रेजी नहीं आती, क्योंकि वही जानता था कि अंग्रेजी शासन ने भारतीयों को अशक्त कर दिया था पर उनकी आत्मा जीवित थी। जो अंग्रेजी नहीं जानते थे उनमें पूरी तरह और जो अंग्रेजी जानते हुए भी अपनी भाषा में सोचते और समझते थे उनमें उससे कुछ कम परन्तु जो अंग्रेजी पर गर्व करते थे उनकी आत्मा तक को अँग्रेजी भाषा ने कुचल दिया था। वे परछाइयों को यथार्थ मान कर तितलियां पकड़ने को भागते बच्चों जैसे बालिश मूर्ख थे। यह बोध किसी अन्य में नहीं था। उन्नीसवीं शताब्दी के दौर में भी नहीं। गाँधी का इतना महिमामंडन किया जा चुका है कि मैं उसमें एक तिनका तक नहीं जोड़ सकता, परन्तु गांधी को समझने की योग्यता तक हमने पैदा नहीं की यह मुझे उनके भाषा विषयक विचारों से ही लगा। अब तुम चाहो तो हिन्दी के भूत, वर्तमान और संभाव्य पर बात कर सकते हैं।
तुम समझते हो मैं तुम्हारी बकवास सुन रहा था। मैं सोच रहा था हे भगवान, बहरा होना भी एक वरदान है।
सुना ही नहीं तो वह वरदान तो बिना किसी के दिए ही तुम्हें मिल गया। उठो, तुमसे बात करना भी पत्थर से सिर टकराना है।