अपना-अपना काम

“आखिर तुम चाहते क्या हो? 

“तुम सच जानना चाहते हो कि मैं क्या चाहता हूँ?” 

“इसीलिये तो पूछ रहा हूँ वर्ना पूछता क्यों?” 

“बता दूँ और तुम इस बात के क़ायल भी हो जाओ तो उसका पालन कर पाओगे?” 

“पहले जवाब तो दो.”

“खैर मैं चाहता हूँ हम लोग अपना काम करें. दूसरों को अपना काम करने दें.  इसे तुम इस तरह भी समझ सकते हो कि दूसरे अपना काम हमसे अच्छी तरह जानते हैं. उनका काम हम अपने हाथ में ले लें तो उनके काम में बाधा डालेंगे. हमारे पास न वह दक्षता है न साधन जो उन कामों के लिए ज़रूरी है. इसलिए हम उस काम को भोंडे ढंग से करेंगे. इससे देश और समाज को और अंततः हमें भी, क्षति पहुंचेगी.” 

“तुम फिर गोलमटोल बातें करने लगे.”

“देखो हमारे देश शासन जिस तरह से चलता आया है उसमें जो सबसे बड़ी और गोचर गिरावट है वह यह कि लोग अपना काम नहीं करते. दूसरों का काम करने को झट तैयार हो जाते हैं, इससे उनके के अधिकारक्षेत्र का विस्तार होता है. इसका प्रधान कारण यह हो सकता है कि शासन अपना काम नहीं कर रहा था, पूरे देश पर कब्जा जमाने पर लगा हुआ था. संस्थाएं अपना काम नहीं कर रही थीं. जिनको काम कराना होता था वे उनसे काम करवाते थे. इस स्थिति को बदलना एक चुनौती है और यह एक दिन में पूरा नहीं होगा. आज भी स्थिति में  बहुत कम सुधार हुआ है. निकम्मापन और भ्रष्टाचार का समानांतर विस्तार हुआ. राज्य के अंग भी अनंग होने की प्रक्रिया में आगये. उच्च संस्थाएं भी इस व्याधि से बची नहीं. न्यायपालिका का कार्यपालिका में हस्तक्षेप, विधायिका का कार्यपालिका में दखल कार्यपालिका का न्यायपालिका को अपने दबाव में रखने की कोशिश, मीडिया का सत्ता को दबाव में रखने की कोशिश,  राजनेताओं का नाटक करना, अभिनेताओं का राजनेता बनने की कोशश, किसी से छिपी नहीं है. ऐसे में कार्यपालिका का चरमरा जाना और शांति व्यवस्था का उससे प्रभावित होना टाला ही नहीं जा सकता. इस बिगड़ी हालत के लिए जो मुख्य रूप से जिम्मेदार है उसका नाम लेना ज़रूरी नहीं, परन्तु उनके साथ खड़े हो कर उस व्यक्ति के खिलाफ लड़ना जिसने पहली बार लक्ष्य किया की समस्या सुशासन की है, आधुनिकीकरण की है, उस राष्ट्रिय पूंजी के अपने देश में निवेश की है जो विदेशों में लग रही है, वहां रोज़गार दे रही है, अपने देश के श्रमिकों की कार्यदक्षता बढ़ाने और उसे उन्नत औज़ारों से लैस करने की है, उस देश में आत्मविश्वास पैदा करने की हैं जिसका मनोबल और आत्मविश्वास इतना गिर चुका है की वह सोचता है कि उसके किये कुछ  संभव ही नही, उन सामानों का उत्पादन देश में करने का वातावरण तैयार करने की है जिनकी खरीद में बड़े पैमाने पर कमीशन चलता और गंगोत्री से ही प्रशासन की गंगा प्रदूषित होकर भ्रष्टाचार के लिए नैतिक औचित्य देते हुए पूरे राष्ट्र की प्रतिरोध क्षमता को नष्ट कर चुकी है. विचित्र लगता है की वह व्यक्ति जो असाधारण दृढ़ता से अपने प्रत्येक वादे को पूरा करने के दुर्धर्ष संघर्ष में जुटा है उसको चुनौती दी जाती है कि हम तुम्हे काम नही करने देंगे, और फिर पूछा जाता है अब नतीजा तो दिखाओ.   

“चाहता हूँ कुछ कहने या करने से पहले हम सोच लिया करें, समझ कर लिया करें कि क्या यह हमारा काम है? क्या यह ज़रूरी है? क्या हम इसे सही तरीके से कर पाएंगे, इसके परिणाम क्या होंगे? क्या इनमे से किसी बात से असहमत हो?

“नहीं यहां तक तो ठीक है.”

“फिर यह बताओ हम हैं कौन?”

“लिखने पढ़नेवाले, सोचने विचारने वाले लोग हैं.”

“हम अपना काम कर रहे हैं या सक्रिय राजनीति कर रहे है.”

“क्या हम अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन भी नही कर सकते?”

“कर सकते हैं. हम लिखने-पढने के अलावा भी बहुत से काम करते हैं. अधिकारों के लिए आंदोलन तो और भी ज़रूरी है. लेकिन एक छोटी सी कड़ी गायब है।“

“बताओ बताओ मैं भी तो जानूं.”

“मैं राजनीति से वाकिफ नहीं हूं, इसलिए पूछ रहा हूं. यह बताओ, पहले कोई मांग रखी जाती है और उसके पूरा न होने पर आन्दोलन किया जाता है या पहले आन्देलन शुरू कर दिया जाता है और उसके बाद मांग रखी जाती है?”

“हां यहां तो कुछ चूक हुई लगती है.”

“प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः. चूक हुई लगती है, हुई नहीं?” 

“चलो यही सही. आन्दोलन की मांगें पूरी हो गई, जश्न भी मना लिया कि अकादमी को बाध्य कर दिया. मांग पूरी होने के बाद आन्दोलन समाप्त हो जाता है या जारी रहता है?”

वह सिर खुजलाने लगा. सिर खुजलाने से भी विचार पैदा होते हैं. कुछ देर खुजलाने के बाद पैदा हो गया, "देखो इस आंदोलन में दो मुद्दे हैं. एक तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और दूसरी है साम्प्रदायिक घृणा का प्रसार."

“दो मत कहो, तीन कहो. क्योंकि इन दोनों का साहित्य अकादेमी से कोई सम्बन्ध नही है. आंदोलन अकादमी के खिलाफ शुरू हुआ था और अकादमी के भूल मानने पर उसकी अपेक्षाएं पूरी हो गईं."

“हाँ तीन भी कह सकते हैं.”

“तो ये तीन आंदोलन थे जो जुड़ कर एक हो गए. देखो विकास के नियम में कुछ जीव टूट कर अपने विखंडन से एक से बहु हो जाते हैं. बहुतों को जुड़ कर एक बनने का नियम नहीं है. यह ह्रास का नियम हो सकता है जिसमे एक जीव दूसरे या कई पर आ गिरे और चपेट में कई की जान चली जाय, जैसे भगदड़ में या दूसरी दुर्घटनाओं में होता है.”

“वह फिर सिर खुजलाने लगा. इस बार उत्तर निकलने में देर हो रही थी. फिर भी निकल तो आया ही. "तुम कुतर्क कर रहे हो. एक ही आंदोलन में कई मांगे भी हो सकती है. कुछ के पूरा होने से आंशिक विजय प्राप्त होते है और बाकी के लिए आंदोलन जारी रहता है."

"बात तो यह भी पते की है. यह बताओ किसी चरण पर यह बताया गया कि हमारी ये मांगें हैं और यह किया जाय तो आंदोलन समाप्त हो जाएगा?"

"किया नही गया है पर सरकार उन लोगों पर तो रोक लगा सकती है जो अनाप शनाप बक कर सामाजिक माहौल को बिगाड़ते हैं,"

"क्या यह उनकी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर हमला नहीं होगा?"

"अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का यह मतलब तो नहीं की कोई अपने भाषण से उत्तेजना फैलाता रहे. यह तो वैसे भी अपराध है."

तुम ठीक कहते हो. देखो तुमने जवाब मांगा था और मैं उलटे तुमसे सवाल करता चला गया. जवाब तो देना ही होगा.

“देखो, मैं फिर दुहरा दूँ, हमारे सामने यह स्पष्ट होना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं और इसका परिणाम क्या होगा। हमने अभी जो चर्चा की उससे साफ है कि सब कुछ बिना सोचे समझ बिना किसी योजना के बाजी मारने की जल्दी में, हम पीछे न रहा जांय की हड़बड़ी में शुरू हो गया. इसे आंदोलन नहीं हंगामा कहते हैं. बौद्धिकों को हंगामे बाज़ी शोभा नही देती. इसमें शामिल होने वालों में सबके अलग घाव हैं जो सोचते बिचारते उठ जाते हैं. मैंने बहुत पहले कहा था की बहुत पढ़ा लिखा आदमी वज्रा मूर्ख होता है क्योंकि वह किताबों में समाधान ढूँढता है, अर्थात दूसरों के विचारों से अधिक निर्देशित होता है. सचाई पर उसकी नज़र नही जाती. पर एक सुलझे दिमाग के अनपढ़ को सचाई का सामना करना पड़ता है. पढ़े लिखे आदमी को वह भी मूर्ख समझता है.

लेकिन एक बात इन सभी में पा सकते हो. ये  सभी बहुत पहले से मोदी से नफ़रत करते हैं. उसे खतरनाक मानते हैं. घृणा करने वाला किसी को समझ नही सकता और यह समझ नहीं सकता की मोदी में जो दृष्टि, संकल्प, समर्पणभाव और सहिष्णुता है, वह भारत के किसी राजनेता में थी ही नहीं. ये. संख्या गिन रहे हैं. इंतज़ार कर रहे हैं. दबाव डाल रहे हैं और इस मुगालते में हैं की यह दबाव इतना बढ़ जाएगा की शासन कठोर से कठोर कदम उठाने के लिए विवश हो जाएगा और तब यह विस्फोटन जनक्षोभ में परिणत हो जायेगा और ऐसा निर्णायक दौर आरम्भ हो जाएगा कि शासन चरमरा जायेगा. सरकार गिर जाएगी और फिर से वह दौर आरम्भ हो जाएगा जिस में देश का जो भी हो इनकी बन आएगी. 

सरकार गिरे या संभली रहे परन्तु ये अपनी ओर से अराजकता कि स्थिति पैदा कर रहे हैं और इसलिए उनका काम कर रहे हैं जिनको हमारे देश में अराजकता फ़ैलने से, शासन चरमराने से फायदा हो सकता है. वे इस देश में भी हो सकते हैं बाहर भी हो सकते है. एक बात तय है कि ये अपना काम नहीं कर रहे हैं और दूसरी यह कि ये अच्छा काम नहीं कर रहे हैं.

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