तरस खाते हुए

"तुमने मुझे कल बहुत विचलित कर दिया." यह कहते हुए भी वह परेशान लग रहा था.

"मैं जानता हूँ. जो कुछ मैंने कहा उसे सोचते हुए मैं भी परेशान हो जाता हूँ. परन्तु आत्मनिरीक्षण तो करना ही होगा."

“"आत्म आत्मनिरीक्षण या आत्मालोचन ?” 

"नही, आत्मालोचन नहीं, वह अपमानजनक काम है. इसका कायानुवाद है, ‘कमीने अपने दिमाग से काम लेता है? सबके सामने कान पकड़ और कबूल कर कि तुझसे गलती हुई है.’ पार्टी का आकर्षण इसके घोषित लक्ष्यों के कारण इतना प्रबल था कि लोग सोचते चलो बाहर निकाले जाने से अच्छा है कान पकड़ लो. 

“कान अपना है, पकड़ेंगे भी तो उमेठ कर तो नही. जिसका शब्दानुवाद होगा, 'थोड़ी गलती हुई लगती है.’ 

‘थोड़ी! फिर और गहराई से आत्मालोचन करो’, जिसका कायानुवाद करें तो होगा, ‘कान भी पकड़ा तो इतने धीरे से. अब सिर्फ कान पकड़ने से काम नहीं चलेगा. अब कान पकड़ कर नाक भी रगड़नी पड़ेगी.’ 

समग्र मानवता को मानवीय गरिमा प्रदान करने के सत्कार्य में सहयोगी बने रहने के लिए स्वाभिमानी और ज्ञानी सदस्यों को भी यह शर्त स्वीकार्य हो जाती थी. जॉर्ज लुकाच जैसे व्यक्ति, राहुल सांकृत्यायन जैसे व्यक्ति, रणदिवे जैसे व्यक्ति, पूरन चन्द्र जोशी जैसे व्यक्ति. मैं सबको तो जानता भी नही. पी.सी. जोशी की तो जान बची पर सम्मान नही. सुना उन्हें मछुआ बाजार के पेशे से एक कुजड़ा कामरेड को सौंप दिया गया था जो उन्हें गालियां देकर जनभाषा सिखाया करता था. ये वही जोशी है जिनके चुम्बकीय आकर्षण से कवियों, कलाकारों, नाटककारों और फिल्मी हस्तियों का इप्टा से जुड़ाव हुआ था जिसके गुन गाते हुए अनेक कलाप्रेमी छोह में आत्म मुग्ध हो जाते हैं. कला और साहित्य के लिए पार्टी में कितनी इज़्ज़त थी इसका एक पैमाना यह तो हो ही सकता है.”

“तुम पार्टी से कब जुड़े थे?”

“पार्टी से कभी जुड़ा भी नहीं न कभी जुड़ने की इच्छा हुई. डर लगता था.” 

“डर किस बात का?”

“भेजा निकाल लिये जाने का.” 

“कभी तो तुक की बात तो किया करो.”

“तुमने दंड स्वरूप हाथ काटने, आँख निकालने, ज़बान काटने के वहशी तरीकों की बात तो सुनी होगी परन्तु सम्मान स्वरूप भेजा निकाल लिये जाने और उसकी जगह ठीक उसी आकार का प्रतिनादी यन्त्र फिट किए जाने के बारे में शायद ही सुना हो. यह इतने कुशल तरीके से किया जाता है कि आदमी को पता ही नहीं चलता. तुम्हे भी पता नहीं चला होगा. लेकिन र्काड होल्डर बनाने के साथ ही यह क्रिया संपन्न कर दी जाती है। सुनने में तुम्हे विचित्र लगेगा, विश्वास भी न होगा, लेकिन जब मैने इसका नमूना देखा तो सन्न रह गया.”

वह खीझभरी मुस्कराहट बिखेरता रहा.

“इसका पहली बार दर्शन स्टालिन के मरने और ख्रुश्चेव के सत्ता संभालने के साथ हुआ था. अभी कल तक स्टालिन मानव देवता की तरह पूजा जाता था, उसका एक एक शब्द अकाट्य प्रमाण, कहीं कोई मतभेद नही और एक दिन में ही वह पूरी तरह खारिज. मैं कम्युनिस्ट नहीं था पर दोस्त तो वे ही थे. इतने सारे समझदार, सुपठित, वाक्कुशल लोग एक झटके में एक सिरे से दूसरे सिरे तक बदल गए और उतने ही कौशल से अपने तर्क गढ़ने लगे जिससे कल तक स्टालिन के विचारों को लेकर गढ़ लेते थे. दूसरा मौक़ा आपात काल के समय कामरेड डांगे के हटते और राजेश्वर राव के सत्ता संभालने के साथ देखा. मैं दहशत में मगर कामरेड लोग कल तक जितने वाचाल थे उतने ही वाचाल आज भी लेकिन पलटी मार कर. समझ में नहीं आता था, माज़रा क्या है फिर यह अदृश्य शल्य चिकित्सा की बात सूझी. पार्टी से सहमता तो पहले से था. इसके बाद डर लगाने लगा. और जानते हो लोग किस बात से डर कर आत्मालोचन के लिए तैयार हो जाते हैं?”

"जब इतना बता दिया तो वह भी बता दो." 

“लोग सोचते हैं यदि लाइन से तनिक भी इधर उधर हुए तो कहा जाएगा, कार्ड वापस करो और अपना भेजा ले जाओ.’ लोग जानते हैं अब इतने अरसे तक फ्रीज़ रहने के बाद वह किसी काम का रह नहीं गया होगा, इसलिए प्रतिनादी यन्त्र से सोचने का भरम पैदा करते और बोलने का काम लेते हैं.  इसीलिए कहता हूँ एक मार्क्सवादी के लिए आत्मनिरीक्षण ही पर्याप्त है. आत्मालोचन की नौबत नहीं आनी चाहिए."

तुम्हारे मन में कम्युनिस्टों के प्रति इतनी घृणा है, यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था.

“घृणा उनका औज़ार है जिनके पास जवाब नहीं होता. जो सोचते है वे घृणा नही करते. वे पता लगाते हैं कि ऐसा क्यों हुआ, मैं कम्युनिस्टों से घृणा नहीं कर सकता. कम्युनिस्ट पार्टी के मानव गरिमा और समानता के सम्मोहक नारे से आकर्षित होकर इतनी महान, निष्काम, विभूतियाँ इससे जुड़ती रही हैं कि उनके त्याग को देखते उनके चरण चूमने का मन हो और उनकी व्यर्थता की कल्पना करके उनसे बच कर रहने का संकल्प पैदा हो. मैं तो प्रेरणा के लिए भी उधर ही देखता रहा हूँ और विडम्बना के लिए भी उधर ही देखता हूँ.

“तुम्हारे मन में कम्युनिस्ट पार्टी से एलर्जी कब पैदा हुई, यह बताओगे.”

“कम्युनिस्ट पार्टी से नही, हिंसा से एलर्जी है मुझे. शैशव से ही हिंसा, उत्पीड़न और त्रास झेलता रहा. अपमान  इतना झेलना  पड़ा कि अपमानित होने का डर भी समाप्त हो गया. उस पीड़ा ने ही मुझे दृष्टि दी और उसी ने मुझे तपाया. उसी  ने मुझे दूसरों से अलग बनाया क्योंकि एक ही कारण होने पर भी पीड़ा का रूप एक जैसा नही होता. उसी ने मुझमे वह जिज्ञासा पैदा की, कि ऐसा क्यों होरहा है. मेरी चूक क्या है. मैं अकेले कोने में छिप कर घंटों रोता रहता था कि कोई मुझे रोता देख कर मुझ पर तरस न खा बैठे. दूसरा कोई पूछता तुम्हारी मैभा तुम से कैसा व्यवहार करती है तो उसकी तारीफ़ इस तरह करता कि जानने वाले उपमा देते मैभा हो तो ऎसी. मैं दुःख सह सकता हूँ दैन्य नही. स्वाभिमान इतना और अपमान का भय नहीं. अपमान करने वालों को भी क्षमा कर देता हूँ, बदले में अपमानित करने का विचार तक नही आता."

मेरी कहानी सुनते हुए वह भी भावुक हो गया था फिर भी उसने याद दिलाया, "मैं पार्टी के बारे में जानना चाहता था."

"मैं हिंसा को अन्याय का प्रमाण मानता हूँ. मैं किसी भी बहाने की जाने वाली हिंसा को त्याज्य मानता हूँ. हिंसा करने वालों को भी. पर घृणा उनसे भी नही करता." 

"हिंसा को रोकने के लिए हिंसा को सही नही मानते."

हिंसा से हिंसा को रोका नहीं जा सकता. उसका विस्तार किया जा सकता है. हिंसा के प्रति वितृष्णा को कम किया जा सकता है. हिंसा की आदत डाली जा सकती है. और वही किया गया है. 

"तुम कहते हो हिंसा को सहन करते हुए अपने को अपमानित किया जाना चाहिए."

"मैं जो कहा रहा हूँ उसे समझने की योग्यता का तुममे अभाव है क्योंकि तुम स्वयं हिंसा की आदत डाल चुके हो. मैं पहले कह चुलका हूँ की हथियार से अधिक ताक़तवर है विचार. विचार की पुरानी सीमाओं को संचार की उन्नत प्रणाली ने तोड़ दिया हैं. आज के युग में भी विचार की शक्ति का उपयोग न किया जाय, विचार को नष्ट करके अन्याय को जारी रखने वालों के हाथ संचार और सूचना के साधनों को छोड़ दिया जाय तो इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण क्या होगा."

"तुम यह नहीं मानोगे कि हथियार के बल पर ही अपने ही देश के सत्तर प्रतिशत लोगों को दबा कर, यहां तक कि अस्पृश्य बनाकर रखा गया."

"हथियार के बल पर नही, उसके लिए एक विचारतंत्र विकसित किया गया, उसका एक प्रसारतंत्र विकसित किया गया. उस विचारतंत्र और प्रचारतंत्र को नियंत्रित करने वालों ने लोगों को अपने पाँवों पर नाक रगड़ने के लिए बाध्य ही नही कर दिया उस पर गर्व करना तक सिखा दिया. उनको भी जिनके हाथ में हथियार था. उनके पास छड़ी तक न थी. पर वाचाल और उद्दंड मूर्खो की संगठित सेनाओं का नाम है कम्यूनिस्ट पार्टियां. उनको समझाने की योग्यता तो मुझमें भी नहीं है. वे बोलते भी हैं तो हल्ला बोलते है. बोलना तक नहीं आता.”

अब आगे वह न कुछ सुन सकता था, न मैं कहने की स्थिति में था. दोनों साथ उठा खड़े हुए।

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