नहीं हैं कहीं भी नहीं लहू के निशान

भई मैं तो यह देख कर दंग रह जाता हूँ कि मोदी को बचाने के लिए तुम सारा इल्जाम अपने माथे पर ले लेते हो, ऐसी वफादारी तो गुलामों में ही देखी जाती है।

मैं हँसने लगा,"मैंने कहा था न कितनी भी कोशिश करूँ, कोई नतीजा नहीं निकलना। यहाँ तक कि गालियों की भाषा में बात करने की आदत भी नहीं छुड़ा सकता।

यह बताओ, दंगे भड़काएँगे राजनीति करने वाले, भड़काने वाली भाषा में बात करेंगे राजनीति करने वाले और समाज में बढ़ती असहिष्णुता की जिम्मेदारी होगी साहित्यकारों और चिन्तकों की। इससे बेतुकी बात क्या हो सकती है?

दंगे भड़काने वाले शिक्षित हैं या अशिक्षित/"

"कहने को तो हैं शिक्षित ही।"

"कहने भर को शिक्षित रंगरूट निकालने वाली शिक्षा प्रणाली ने अपना काम सही किया?"

वह थोड़ा चकराया।

"यह उसी छात्र राजनीति का नतीजा है जिसमे छात्र अपना काम, अर्थात  अध्ययन छोड़ कर राजनीति करते हैं। तुम कहते हो संसदीय प्रणाली के प्रशिक्षण के लिए छात्र राजनीति जरूरी है, और उस राजनीति के कारण वे बाहर निकल कर न संसद में संसदीय भाषा का प्रयोग करते हैं न बाहर शिष्ट व्यवहार। तुम स्वयं राजनीति करते हो और अपने छात्रों के भविष्य को विकृत करते हुए अपना काडर तैयार करते हो। इसमें पहली कमी बौद्धिक वर्ग के कारण आई है, शिक्षा प्रणाली को आन्दोलन-प्रणाली में बदलने से आई है या नहीं। उसी का उपयोग राजनीतिक करते हैं जो सदा से सत्ता के लिए हिंसा, झूठ, फरेब, चुगलखोरी का सहारा लेते हैं। हम अपने काम की जिम्मेदारी लें और अपनी जमीन पर खड़े हो कर अपनी लड़ाई लड़ें तो इस विकृति से बचा जा सकता है या नहीं? देखो, हमारा मोर्चा अधिक निर्णायक है, राजनीतिक भविष्य का निर्णय भी वही करता है।" 

"ये जो अमुक स्वामी और अमुक साध्वी जहरीली बातें करती हैं वह हमने सिखाई हैं?"

"वे राजनीतिक भी नहीं हैं, समाज के सबसे गैर ज़िम्मेदार लोग हैं यह मैं दो दशक पहले बता चुका हूँ और इसके लिए भाजपा को चेतावनी भी दे चुका हूँ. वे न जीना जानते हैं, न अपना घर सम्भालना जानते हैं, न बोलना जानते हैं न सीधी राह चलना जानते हैं. मोदी ने उन्हें सिरे से किनारे दरकिनार किया है इसलिए बौखलाए ऊटपटांग बकते हैं. उन्हें दरकिनार किया जा सकता हैं पर तुम्हें? 

“जहर तो तुमने उससे अधिक बोए हैं, पर इसका तुम्हें पता ही नहीं। उनके विषय में मैंने कुछ पंक्तियाँ तुम्हें पढ़ने को दी थीं। तुमने पढ़ा भी था पर भूल गए।  आक्टोपस वाली उपमा तुम्हें याद है, न हो तो 17 अक्तूबर को उसे फेसबुक पर भी डाल दिया था। पृ.212 के अन्तिम पैराग्राफ को फिर से पढ़ो तो समझ में आ जाएगा कि बौद्धिक राजनीतिक से बहुत आगे तक देखता है। राजनीतिक उसके पीछे चले तो उसे लाभ होगा और साहित्यकार का गौरव भी बढ़ेगा। यही बात प्रगतिशील  लेखक संघ के पहले अधिवेशन में प्रेमचन्द ने अपने भाषण में कही थी, परन्तु तुम्हारी समझ उल्टी थी। वह लेखक को राजनीतिक के पीछे हाँकता रहा। परिणाम, साहित्य न समाज के काम का रहा, न चेतना के विकास में सहायक हो सका, न ही राजनीति को मदद पहुँचा सका, जो इसके वश का भी नहीं था। उल्टे प्रगतिषीलता की ऐसी विकृत समझ को बढ़ावा देता रहा जिससे जनभावना को ठेस पहुँचती रही। हम कभी इस दुर्भाग्यपूर्ण मोड़ पर चर्चा करेंगे जब कम्युनिस्ट पार्टी मुस्लिम लीग का मुखौटा बन गई और इसकी गतिविधियाँ मुस्लिम लीग की योजनाओं के अनुसार चलती रहीं और उसे  इसका पता ही न चला। वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टी का अन्त तो उसी समय हो गया था जब उसने मुस्लिम लीग से हाथ मिलाया और यह हाथ लगातार पर्दे के पीछे मिला ही रहा।“ 

“तुम कहाँ से इतनी वाहियात बातें ढूँढ़ लाते हो भाई।“

“मेरी जानकारी बहुत कम है, परन्तु इस बात को तो लगभग सभी कम्युनिस्ट जानते हैं कि उन्होंने धर्म के आधार पर राष्ट्रीयता की अवधारणा का समर्थन किया था और विभाजन के सवाल पर जनमतसंग्रह के समर्थक थे। यदि तुम्हें नहीं पता तो मैं एक कम्युनिस्ट कार्ड होल्डर राज थापर की कष्टकथा की कुछ पंक्तियों की ओर ध्यान दिला सकता हूँ:

Sleeping, walking, dreaming, I was tormented by the precipitous edge that Jinnah had brought to the country to. And when Mohan, communist and dedicated, produced a string of defences for the term, day in and day out, I found myself wanting to throw things at him and everyone else for not being able to see that self determination could not be based on religion; culture and religion were not synonymous terms....

... And of all people, Mohan,  who then I though had devoured all the basic writings of Marxism, how could he hold, support and supply Jinnah with intellectual arguments he so urgently needed? 

Raj Thapar: All These Years: A Memoir, Penguin Books, 1991, p. 8

“प्यारे भाई यह भूल तो तुम्हारी पार्टी मान भी चुकी है पर भूलें मान कर भूलें करते जाना जुम्हारी अदा में शामिल है।“

“मुहावरा है नाम में क्या रखा है। पर नाम में बहुत कुछ रखा है। सारे गोरखधन्धे अच्छे और पवित्र नामों की आड़ में ही किए जाते हैं। नाम है कम्युनिस्ट पार्टी, कार्यभार है मुस्लिम लीग का। मुस्लिम लीग तभी तक जिन्दा रह सकती है जब तब उसकी प्रतिरोधी कोई हिन्दू पार्टी हो। इसलिए हिन्दू साम्प्रदायिकता को साम्प्रदायिकता विरोध के नाम पर उत्तेजित करते रहना तुम्हारी जरूरत है और सांप्रदायिक तनाव और असहिष्णुता को बढाने में तुम्हारी भूमिका सबसे अधिक है। धर्मनिरपेक्षता मुस्लिम साम्प्रदायिकता का दूसरा नाम है जैसे खुराफातियों के कई उपनाम होते हैं उसी तरह। वर्ना आरएसएस तो कभी का किनारे लग गया होता। उसे नया जीवन तुम्हारी असहिष्णुता ने दिया है। उत्तेजना भड़काने का जितना सुनियोजित और सिलसिलेवार काम तुमने किया है वैसा तो किसी ने किया ही नहीं।

11/8/2015 10:41:09 PM

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