हिंदुओं का देश

"कोई बात पूरी नही होती," उसने भूमिका बनाते हुए कहा.

"अधूरापन ही विचार को ज़िंदा रखता है," मैंने भी फ़िक़रा जड़ा.

उसने मेरे फ़िक़रे पर ध्यान नहीं दिया. अपने में खोया बोलता रहा, "कल मैं तुम्हारे उस वाक्य पर सोचता रहा, 'सभ्यता का चरित्र वैश्विक है, इसलिए भारत में जो कुछ है वह पूरी मानवता का है.' सभ्यता का चरित्र तो समझ में आया, परन्तु उतने प्राचीन चरण पर भारत में जो उत्कर्ष देखने में आता है, वह पूरी मानवता का है, यह जुमला समझ में नहीं आया और आया भी तो इस रूप में कि भारतीय सभ्यता के उत्थान में सुमेरिआ, मेसोपोटामिया और मिस्र का योगदान है. परन्तु उस दशा में यह बात समझ में नही आई, कि सभ्यता के प्रेरक घटकों का प्रवाह भारत से उन देशों की ओर था."

ख़ुशी हुई कि पहली बार वह सचमुच गम्भीर था. मैंने कहा, "देखो, मैं केवल यह नहीं कह रहा था कि ऋग्वेदिक भाषा और संस्कृति का प्रवाह भारत से उन सभ्यताओं और असभ्य समाजों की ओर था, अपितु यह भी कि सभ्यता का जन्म भारत में हुआ और इसकी पहल से सुमेरी सभ्यता का, सुमेरी की प्रेरणा से मेसोपोटामियाई और मिस्री सभ्यता का उत्थान हुआ, परन्तु यदि कल इस बात को इतने खुले शब्दों में कहता तो तुम मेरी बात सुने बिना उठकर चल देते. तुम सोचते, इतनी भारतमुग्धता तो किसी मनोविक्षिप्त में ही हो सकती है. उससे सर क्यों मारना? आज तुम सुनने की मानसिकता में हो तो थोड़ा खुल गया."

"अटपटा लग रहा है फिर भी इसे मान लें तो जो भारत का है, वह पूरी मानवता का कैसे हो गया? कहना तुम यह चाहते हो, कि भारत भूमि में ही कुछ ख़ास है, ‘गायन्ति देवाः किल गीतिकानि धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे’ वाले स्वर में'."  उसका चेहरा कुछ तमक आया था, फिर भी वह अपने को नियंत्रित करने का प्रयत्न कर रहा था. 

"उस स्वर में तो नहीं, पर कुछ खास है, यह तो है ही. दुनिया के सभी क्षेत्रों में कुछ ख़ास है, और भारत में कुछ अधिक खास है."   

"क्या बकते हो तुम!" नियंत्रण की भी एक हद होती है. भाप का दबाव बढ़ जाने पर तो बॉयलर फट जाते हैं.

मैंने उसकी उत्तेजना का मज़ा लेते हुए उसे और कंफ्यूज करना चाहा, "सभ्यता के विकास में आपदाओं की भी एक भूमिका है. वे चाहे प्राकृतिक प्रकोप के कारण हों या मनुष्य की लापरवाही, उद्दंडता, कृपणता, निर्ममता, अज्ञान, कायरता, या सदाशयता से पैदा हों." 

इच्छित प्रभाव पड़ा. उसका पारा नीचे आ गया. हैरान होकर मुझे देखने लगा. इस हैरानी में प्रश्नाकुलता भी थी.

“भारत को प्रकृति ने रेगस्तान क्यों न बनाया जिसमे तेल के कुओं से पिघला हुआ सोना निकलता. रेगिस्तान तो अपने हिस्से आया पर उसमें तेल के कुंएं ही नदारद. दुख तो हुआ होगा इस पर . सीलन इतनी और गरमी इतनी कि लकड़ी में ही नहीं, आदमी के दिमाग में भी फफूंद लग जाती और वह सोचता नहीं दुहराता है. इस देश और हवा में उत्तर, सच कहें पश्चिमोत्तर से, और अंतिम सत्य यह कि सीधे यूरोप या उसके निकटस्थ क्षेत्र या दिशा से ऊर्जा लिए आने वाले कुछ ही समय में यहाँ की जलवायु के कारण खलास हो जाते रहे हैं, इसे आप मानते रहे हैं और इस पर आपसे बहस करूँ भी तो समय की बर्वादी ही होगी, इसलिए इस पर चुप रह जाता हूँ. मगर आप उस त्रासदी के समय इसकी महिमा को तो जानिए. यह हिमयुग की गहराती त्रासदी में पूरी दुनिया में सबसे उत्तम शरणस्थल था, या नही?

वह भौचक मुझे देखता रहा. 

"अच्छा यह बताओ, यदि तुम्हें परिभाषित करना हो तो भारत को किसका देश कहोगे?"

वह मेरी और देखता रहा, फिर बोला, 'तुम चाहते हो मैं इसे हिन्दुओं का देश कहूँ."

"तुम निरे गावदी हो यार. कल्पना शक्ति है ही नही. दिमाग पर ज़ोर तो डालो. उसने दिमाग पर काफी ज़ोर डाला, पर उसमे से निकला, "तुम्ही बताओ."   

"मैं इसे मेलों का देश कहूँगा. जितने बड़े और जितने मेले, और जितने विचित्र मेल यहां लगते हैं, दुनिया में कहीं नहीं लगते. ठीक कहा?"

उसने हामी में सर हिलाया.

"पर एक मेला इतना बड़ा लगा था जिससे बड़ा मेला न कभी लगा न लगना चाहिए, और मज़े की बात उस मेले को मुझसे पहले न किसी ने देखा, न मेरी मदद के बिना देख सकता है."

"समझा कर बताओ यार."

"यह मेला विगत हिमयुग के गहराने के कारन लगा था, जब उत्तर के घबराए हुए लोग और जानवर सूरज की दिशा में और समुद्र की दिशा में पलायन करने लगे थे. उस आपदा में भारतीय भूभाग श्रीलंका से बहुत आगे तक फैला था. समुद्र काफी पीछे खिसक गया था.

“इस मेले के जुटान में ही हज़ारों साल लग गए थे. उत्तर की पर्वत श्रृंखला उत्तर की हवाओं के लिए दीवार थी. विशाल तट रेखा थी, वर्षा का औसत बहुत गिर गया था, पहले की आबादी पर आने वालों का बोझ. सूखे से खाद्य सामग्री का अभाव. ज़िंदा रहने के लिए भीषण मार-काट. अपने जत्थे को बचाने के लिए, और सम्भव है पेट भरने के लिए भी, नरहत्या तक को तैयार. तुम्हारी कपाल-कुण्डला, रक्तपायी काली उसी युग की प्रतीक है. कैलाश की चोटी पर विराजने वाला शिव जो हाथी का चमड़ा पहनता है, उन साइबेरियाई आगंतुकों का प्रतीक है. धरती का संतुलन बनाए रखने के लिए महागजों या दिग्गजों की कल्पना में मैमथों और मॅस्टोडानों की छाप है. ग़रज़ कि दूर उत्तर से लेकर बीच के और आसपास के अमंख्य मानव जत्थों का आगमन और रेलपेल. परन्तु अपनी विभिन्न परिस्थितियों में ज़िंदा रहने के लिए इन्होने जो तरकीबे निकल रखी थी उनका भी आगमन और लेन-देन भी होना ही था. समुद्र-मंथन कभी हुआ था और उससे क्या निकला था यह तो पता नहीं, परन्तु यह जो महामानव समुद्र मंथन इस भूभाग में हुआ था, उससे निकला था वह अमृत, जिसे चाइल्ड ने कृत्रिम उत्पादन और कृषि क्रांति कहा था और अपनी सतही और किंचित यूरोकेन्द्री दृष्टि के कारण अपने ‘निकट-पूर्व’ में केंद्रित मान लिया था. वह क्रांति इस भूभाग में हुई थी और राहत का दौर या उष्म काल के साथ दूर-दूर तक फैली थी. इसी की दूसरी अभिव्यक्ति स्थाई निवास, ग्राम, नगर और नगर संस्कृति का उदय भी इस देश में हुआ परन्तु इसमें विश्व मानवता की भागीदारी थी. अब हुई बात साफ़?"

वह हक्का बक्का, "इसके भी प्रमाण हैं?"

"होंगे क्यों नहीं. उसी महामंथन से इतिहास को बचाये रखने की अनेकानेक युक्तियाँ भी तैयार हुईं और हमने अपने इतिहास को ही नहीं उन युक्तियों क भी बचाए रखा. जो इसे नही समझ पाता वह न इतिहास को समझ सकता है, न अपने समाज को, न ही वर्तमान को. और ऐसा उचक्का यदि समाज को बदलने चलेगा तो समाज को, इसके मूल्यों, मानों, इतिहास और वर्तमान, सभी को झुलस कर रख देगा. मार्क्सवाद के नाम पर अनाड़ियों ने यही किया."

"तुम तो अपने को खुद मार्क्सवादी कहते हो."

"मैं मार्क्सवादी हूँ, पर अनाड़ी तो नही. दुर्भाग्य से इस देश में मैं अकेला मार्क्सवादी हूँ. दूसरे या तो भाववादी हैं या मोल-भव-वादी. मार्क्सवादी इतिहास-विश्लेषण मार्क्स को भी माफ़ नहीं कर सकता. इन पेशेवर सौदागरों की खबर तो लेगा ही. मैं अकेला पड़ जाता हूँ और मेरे सबसे बड़े दुश्मन अपने को मार्क्सवादी कह कर तमाशे खड़े करने वाले ही हैं."

2015-10-23

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